लोकतंत्र हितों का टकराव है जो इस तीखे, धुआंधार चुनावी मौसम में सिद्धांतों के टकराव का रूप लेता जा रहा है। इस चुनावी मौसम में हमारे नेताओं द्वारा झूठ और विषवमन, गाली-गलौच, कड़वे बोल देखने सुनने को मिल रहे हैं और पिछले एक पखवाड़े से हम यह सब कुछ देख रहे हैं। गाली-गलौच, अपशब्द, दोषारोपण आज एक नए राजनीतिक संवाद बन गए हैं और जिन्हें सुनकर दर्शक सीटियां बजाने लगते हैं इस आशा में कि यह उन्हें राजनीतिक निर्वाण दिलाएगा। बिहार और मध्य प्रदेश चुनाव 2020 में आपका स्वागत है। जहां पर इस चुनावी मौसम में अनैतिकता देखने को मिल रही है और राजनीतिक विरोधियों तथा जानी दुश्मन के बीच की लकीर धुंधली होती जा रही है। इन चुनावों में घृणित तू-तू, मैं-मैं देखने को मिल रही है। हमारे नेतागणों द्वारा राजनीतिक संवाद में गाली-गलौच, भड़काऊ भाषण, अर्थहीन बातें आदि सुनाई जा रही हैं और वे वोट प्राप्त करने के लिए राजनीतिक मतभेद बढ़ा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा, विपक्ष ने एक पिटारा बनाया है जो नक्सल आंदोलन को आगे बढ़ा रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा हम पप्पू अर्थात राहुल और जोड़-तोड़ मंडली महागठबंधन के बीच फंसे हुए हैं तो राहुल ने कहा मोदी जहां कहीं जाते हैं केवल झूठ बोलते हैं। आग में घी डालते हुए राजद के तेजस्वी यादव ने कहा नीतीश मानसिक और शारीरिक रूप से थक गए हैं। उनके पास कुर्सी पर बैठने और इस तरह अपना जीवन बिताने के सिवाय कोई चारा नहीं है। तो जद (यू) अध्यक्ष ने इस पर कहा कहां भागे फिर रहे थे। तुम दिल्ली में कहां रहते थे। क्या आप इन सबको सुनकर हैरान होते हैं। बिल्कुल नहीं। जो भाषण जितना कड़वा होता है उतना अच्छा। आप इसे राजनीतिक संवाद का अंग कह सकते हैं किंतु सच यह है कि गत वर्षों में हमारे नेता असंयमित भाषा में सिद्धहस्त हो गए हैंं। आपको स्मरण होगा कि कांग्रेस ने मोदी को गंदी नाली का कीड़ा, गंगू तेली, अहंकारी दुर्योधन और कातिल तक कहा था तो उन्होंने कांग्रेस को पाकिस्तान का प्रवक्ता कहा। यही नहीं मायावती खुद रोज फेशियल करवाती हैं, उनके बाल पके हुए हैं और उनको रंगीन करवाकर अपने आपको जवान साबित करती हैं। 60 वर्ष उम्र हो गई लेकिन ये सब बाल काले हैं। तूणमूल की बुआ ममता और उनके भतीजे द्वारा तोलाबाजी टैक्स लागू किया जा रहा है। हमारे नेतागणों ने एक झटके में चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता को ताक पर रख दिया है जिसमें पार्टी और उम्मीदवारों को अन्य नेताओं के व्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणी करने और असत्यापित आरोप लगाने पर प्रतिबंध है। किंतु नेताओं का दोगलापन किस तरह सफल होगा यदि वे जिस नैतिकता की बात करते हैं उसे अपने आचरण में ढालने लगें। इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है। आदर्श आचार संहिता के मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है। क्या ये मामले केवल प्रतीकात्मक हैं? क्या चुनाव आयोग को इस संबंध में तुरंत कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? चुनाव के बाद शिकायतों पर कार्रवाई करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। इन प्रश्नों से निर्वाचन आयोग भी जूझ रहा है। किंतु जब तक निर्वाचन आयोग कोई समाधान ढूंढता है तब तक मतदान हो चुका होगा और आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन निरर्थक बन जाएगा क्योंकि आदर्श आचार संहिता निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों के बीच एक स्वैच्छिक सहमति है और जिसे कोई कानूनी दर्जा नहीं मिला हुआ है। राजनीतिक पाॢटयां और उम्मीदवार इसका खुलेआम उल्लंघन करते हैं और आयोग इस संबंध में नि:सहाय है। सही या गलत को यह कहते हुए माफ कर दिया जाता है कि यह भावावेश में कहा गया या यह कहकर इसे खारिज कर दिया जाता है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है किंतु इस गाली-गलौच के खेल में एक चीज स्पष्टत: सामने आती है कि यह राजनीतिक असंयम हमारी व्यवस्था की कटु सच्चाई को उजागर करती है। आज राजनीति गटर स्तर तक गिर चुकी है। कुल मिलाकर हमारी व्यवस्था सरकार, पार्टियां और राजनेता गरिमा और शिष्टाचार की परवाह नहीं करते हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि चुनाव कौन जीतता है क्योंकि अंतत: जनता हारती है।
इसके लिए किसे दोष दें? इसके लिए हमारे नेता और पाॢटयां दोषी हैं जिन्होंने असंयमित भाषा में महारत हासिल कर ली है। हमारे नेता अनैतिक, खतरनाक और वोट बैंक की राजनीति में संलिप्त रहते हैं और वे जनता में मतभेद पैदा करते हैं। आज के गाली-गलौच वाले चुनाव प्रचार के माहौल में लोकतंत्र का मूल विचार ही प्रभावित हो रहा है। समय आ गया है कि हमारे नेता अपने विभाजनकारी और व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों को सीमित करें और विरोधी उम्मीदवारों के साथ मुददों के आधार पर बात करें।
---पूनम आई. कौशिश
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