कार्यशील भारतीय लोकतंत्र के 70 वर्षों के बाद राष्ट्रीय परिदृश्य के किसी भी ईमानदार पर्यवेक्षक को आज पहले की तुलना में कौन-सी बातें अधिक ङ्क्षचतित करती हैं? असुखद जमीनी हकीकतों की सूची काफी लंबी है। यह समाज और जीवन की आधारभूत बातों से संबंधित है।
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यह पतनोन्मुखी रुझान को भी दर्शाती है क्योंकि आंतरिक विरोधताइयां हर दिन प्रचंड होती जा रही हैं। जटिलताएं भी इसी प्रकार बढ़ती जा रही हैं। अधिक जटिलताएं राजनीतिक और मानव-निर्मित हैं। ये अपने साथ सामंतवाद के अवशेष भी समेटे हुए हैं जो अब सामाजिक परिवेश का हिस्सा बन चुकेहैं।
‘महाराजधिराजाओं’ के इस नए वर्ग ने ‘फूट डालो और राज करो’ के औपनिवेशक दौर के पुराने खेल को गवर्नैंस के बहुत ही खूबसूरत नए उपकरण में बदल दिया है। भारत की शक्तियां और कमजोरियां सत्ता-मद से इतराए हुए नेतृत्व के वायदों और कारगुजारियों के साथ ही सह-अस्तित्व में मौजूद हैं।
2014 में उत्कृष्ट गवर्नैंस, अच्छे दिन और भ्रष्टाचार मुक्त व जवाबदार प्रणाली का जो वायदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था उससे आशा की किरण जगी थी। मोटे रूप में 3 वर्ष गुजरने को हैं। वायदों और वायदा खिलाफियों का यह खेल जहां हमारा मनोरंजन करता है वहीं बदहवासी भी पैदा करता है।
बदलाव की हवा हमेशा की तरह हमें गच्चा देकर कहीं अन्य जा रही है, फिर भी हम भारतीय लोग उम्मीद नहीं छोड़ रहे। बदलाव तो केवल इतना ही आया है कि सफेद टोपी ने रंग बदलकर भगवा रूप ग्रहण कर लिया है। व्यवस्था और गवर्नैंस के पुराने नियम किसी न किसी हद तक वैसे के वैसे ही बने हुए हैं। जमीनी हकीकतें प्रमाणित रूप में दिखाती हैं कि समाज के निचले स्तरों पर पहले की तरह ही गरीबी, दरिद्रता और अन्याय का बोलबाला है।
सार्वजनिक रैलियों में प्रधानमंत्री मोदी के गरीबी विरोधी भाषण हमें 70 के दशक में इंदिरा गांधी की ‘गरीबी हटाओ’ की सिंह गर्जना की याद दिलाता है। इंदिरा गांधी जब गरीबी हटाओ के विषय पर बोलती थीं तो अपनी भाषण कला का चरम प्रदर्शन कर रही होती थीं। विश्वविख्यात चित्रकार एम.एफ. हुसैन ने बंगलादेश सृजन के उनके दिलेरी भरे कदम के लिए उन्हें अपने एक चित्र में ‘दुर्गा’ के रूप में प्रस्तुत करके अमर कर दिया था।
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विडम्बना देखिए कि उस कार्यक्रम के अब लगभग आधी शताब्दी बाद भी 40-45 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। मोदी के राजनीतिक धर्म में भी ‘दरिद्र नारायण’ पर फोकस यथावत बना हुआ है। स्टाइल भी इंदिरा गांधी जैसा ही है लेकिन नोटबंदी तथा ‘कैशलैस’ रास्ते से भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध लड़ाई छेड़कर उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ को फिर से राजनीतिक अभियान बना दिया है। हमारे लिए चिंता का विषय यह है कि आधी शताब्दी से लग रहे गरीबी हटाओ के नारों के बावजूद जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं हो रहा।
मोदी प्रशासन के अंतर्गत प्रचारित किए जा रहे ‘नव राष्ट्रवाद’ के लिए करोड़ों लोगों की मौन वेदना अग्नि परीक्षा सिद्ध होगी। असहमति और चुनौती के स्वरों को जनविरोधी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। लोकतांत्रिक कार्यशैली के नियमों को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। अधिकतर राजनीतिक पाॢटयां मोदी तंत्र के विरुद्ध एक तरह से युद्ध की स्थिति में हैं। जिस ‘सहकारी संघवाद’ की प्रधानमंत्री बहुत चर्चा करते आ रहे हैं उसके तो चीथड़े उड़ चुके हैं। उनके विकास के एजैंडे पर आधी ब्रेक तो विपक्षी पाॢटयों के विरोध के कारण ही लग गई है।
‘मेक इन इंडिया’ पर ग्लोबल फोकस बनाने की बजाय मोदी का व्यक्तिगत किस्म का लोकतंत्र ही दुनिया की निगाहों का केन्द्र बन रहा है। यहां तक कि खादी उद्योग से संबंधित कैलेंडरों पर चरखा कातते महात्मा गांधी की तस्वीर ने एक नया रूप ग्रहण कर लिया है- चरखा चलाते नरेन्द्र मोदी ‘नए महात्मा गांधी’ के रूप में उभर रहे हैं। संघ परिवार के नेताओं में भी चापलूसी की संस्कृति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है।
डिजीटल भारत के नक्शे पर बिखरे हुए करोड़ों गरीब और पिछड़े लोग केवल सपनों व वायदों पर ही जी रहे हैं। यदि ओडिशा के केन्द्रपाड़ा जिले की एक आदिवासी महिला अपने विशाल परिवार की आधारभूत जरूरतें पूरी करने के लिए अपना बेटा किसी नि:संतान महिला को बेचने को मजबूर होती है तो किसको इसकी परवाह है? लेकिन जब वह इसके एवज में मात्र 2000 रुपए हासिल करके केवल किसी प्रकार जिंदा रहना चाहती है तो हमारी अमानवीय व्यवस्था उसे इस ‘विलासिता’ से वंचित करने के लिए तलवारें भांजना शुरू कर देती है। प्रबुद्ध और जागरूक लोगों को ऐसे भारतीयों की चिंता परेशान करती है जिनकी कोई भी परवाह नहीं करता।
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सीमा सुरक्षा बल के निडर जवान तेज बहादुर यादव के उस वीडियो को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने जवानों को दिए जा रहे भोजन की गुणवत्ता के संबंध में गंभीर आरोप लगाए हैं। वैसे उनके आरोप भोजन की सीमा से भी आगे तक जाते हैं।
सोशल मीडिया पर यह वीडियो वायरल होने के बाद अन्य कई जवानों ने भी इसी प्रकार के खुलासे किए हैं। इनसे भारतीय रक्षा सेनाओं की उच्च मान-मर्यादा बुरी तरह आहत हुई है। फिर भी हमें विश्वास है कि इस संबंध में जरूरी सुधारात्मक कदम उठाए जाएंगे लेकिन हमारे लिए चिंता की बात यह है कि रक्षा सेनाओं में आंतरिक संवाद तथा शिकायत निवारण का कोई विश्वसनीय तंत्र मौजूद नहीं है। किसी जवान द्वारा सार्वजनिक रूप में रक्षा तंत्र की आंतरिक बुराइयों की चर्चा करना न तो हितकर है और न ही शोभनीय। यह परिपाटी तभी रुक सकती है यदि सैन्य तंत्र के अंदर पारदॢशता और जवाबदारी मौजूद हो। देश की सुरक्षा और सम्मान को आहत होने से बचाने के लिए ऐसा करना जरूरीहै।
‘सत्यमेव जयते’ (सत्य की जय हो) हमारा राष्ट्रीय ध्येय वाक्य (माटो) है। वर्तमान गवर्नैंस तंत्र में किसी भी असुखद सच्चाई पर जुबान खोलने से सत्ताधीशों के माथे पर बल पड़ जाते हैं क्योंकि इससे वह गली-सड़ी व्यवस्था ही बेनकाब होती है जिसका वे नेतृत्व कर रहे हैं। यह भी प्रबुद्ध लोगों के लिए ङ्क्षचता का एक अन्य विषय है क्योंकि यह उन सभी उच्च जीवन मूल्यों के विरुद्ध है जिनका भारत को प्रतीक माना जाता है।
- हरि जयसिंह
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