इस महीने के शुरू में प्रस्तुत किया गया बजट (Budget 2021) दो चीजों के लिए सराहा गया। पहला यह कि यह सही जगह पर पैसा खर्च कर रहा था जिसमें पूंजीगत व्यय शामिल है जो दीर्घकालिक अवधि के ऊपर मूल्य पैदा करेगा और दूसरा यह कि यह बजट पारदर्शी था। घाटा तीन गुणा है जो यह होना चाहिए लेकिन कम से कम सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया है। शायद ये दोनों चीजें एक अच्छे बजट को बनाने के लिए काफी हैं। हालांकि कोई एक नहीं जानता है। वास्तव में 1991 के एक बजट को छोड़ कर ऐसा कोई बजट नहीं है जो मुझे याद हो जिसने शायद ज्यादातर लोगों के जीवन पर कोई फर्क डाला हो। हालांकि यह स्पष्ट है कि बजट ने ऐसी किसी चीज की अनदेखी की है जो आवश्यक थी। सरकार द्वारा आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 में कुछ भयानक आंकड़ों का खुलासा हुआ।
बच्चों के पोषण की स्थिति का प्रतिनिधित्व करने वाले 4 प्रमुख मापों ने 2015-16 में स्तरों की तुलना में 2019-20 में एक महत्वपूर्ण गिरावट दर्ज की। गुजरात, महाराष्ट्र तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में रक्तहीनता से पीड़ित तथा कमजोर (ऊंचाई के लिए कम वजन) बच्चों का स्तर 15 वर्ष पूर्व 2005-06 में रिकार्ड किए गए स्तर से कहीं ऊंचा था। इसने प्रगति के उलट होने का संकेत दिया जो जीतने के लिए काफी कठिन था। यहां तक कि केरल जैसे राज्यों में जो इन संकेतकों का नेतृत्व करना जारी रखे हुए था, वहां पर 2019-20 में रिकार्ड किए गए स्तर 2015-16 के आंकड़ों से कहीं खराब थे।
हिमालय में ऋषिगंगा की तबाही
22 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के आंकड़े सर्वेक्षण में सामने आए हैं और 10 प्रमुख राज्यों का विश्लेषण किया गया है। 2015-16 की तुलना में 2019-20 में सभी 10 राज्यों में बच्चों में रक्तहीनता की ऊंची दर थी। गुजरात, हिमाचल, महाराष्ट्र तथा पश्चिम बंगाल में 2005-06 की तुलना में 2019-20 में बच्चों में रक्तहीनता की ऊंची औसत पाई गई। 10 राज्यों में कमजोर बच्चों की औसत ऊंची दर्ज की गई। असम, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा पश्चिम बंगाल में 2019-20 में 2005-06 की तुलना में कमजोर बच्चों की ऊंची औसत दर्ज की गई।
2019-20 में विश्लेषण किए गए 10 राज्यों में से 7 में कम वजन के बच्चों की ऊंची दर रिकार्ड की गई जो 2015-16 की तुलना में कम थी। 2015-16 के मुकाबले 10 में से 6 राज्यों में उम्र के हिसाब से कम ऊंचाई दर्ज की गई शोध ने यह भी पाया है कि आधे राज्यों में डायरिया में बढ़ौतरी पाई गई जिसमें आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा पश्चिम बंगाल शामिल हैं। बिहार में यह दर 2015-16 में 10.4 प्रतिशत थी जबकि 2019-20 में यह बढ़कर 13.7 प्रतिशत हो गई। स्थिति की यही वास्तविकता है। हम इस बात पर भी बहस कर सकते हैं कि इसका क्या कारण है और एक और दिन के लिए कितना इंतजार करना पड़ेगा। समस्या यह है कि बजट ने स्वीकार नहीं किया इसीलिए इस समस्या को समायोजित नहीं किया।
‘जीना इसी का नाम है’
मिड-डे-मील योजना जिस पर करोड़ों बच्चे अपने एक दिन के भोजन के लिए निर्भर रहते हैं, के बजट में 2021 वित्तीय वर्ष में 13400 करोड़ रुपए की राशि कम होकर 2022 में 11500 करोड़ रुपए रह गई। मुद्रास्फीति में यह 38 प्रतिशत कम थी। एकीकृत बाल विकास योजना (आई.सी.डी.एस.) का उद्देश्य 6 वर्ष से कम आयु के प्री-स्कूली बच्चों तथा उनकी माताओं को भोजन, शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और परामर्श सेवाएं उपलब्ध करवाना है। इसके लिए राशि भी मामूली रूप से 2022 के वित्तीय वर्ष में 16888 करोड़ रुपए थी जो 2014-15 में 18691 करोड़ रुपए थी। ग्रामीण क्षेत्रों में आंगनवाड़ी तथा क्रैच कार्यक्रम का मकसद बच्चों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाना तथा कुपोषण को कम करना है ताकि मृत्युदर, रुग्णता, कुपोषण की घटनाओं को कम किया जा सके। सामान्य स्वास्थ्य तथा पोषण संबंधी आवश्यकताओं की देखभाल के लिए मां की क्षमता को बढ़ाया जाना है।
मुद्रास्फीति समायोजित यह आंकड़ा 2022 के लिए 36 प्रतिशत कम था। 2022 तक पोषण परिणामों में सुधार करने के प्रमुख कार्यक्रम ‘पोषण अभियान’ को भी नुक्सान पहुंचा। 2022 में 31 अक्तूबर तक सरकार ने मात्र वाॢषक परिव्यय का केवल 46 प्रतिशत जारी किया और 2022 में बजट में 27 प्रतिशत की कटौती की गई। पेयजल और स्वच्छता विभाग ने अपने बजट को 21,000 करोड़ से आधिकारिक रूप से 60,030 करोड़ रुपए बढ़ते देखा लेकिन 50,000 करोड़ सैंट्रल रोड तथा मूलभूत फंड के लिए रखा गया जोकि शर्मनाक सवालों से बचने के लिए एक सुझाव था। संख्याओं को जानबूझ कर पिछले खर्चों के साथ तुलना करना कठिन लगता था।
‘नैशनल कैंसर ग्रिड से नई उम्मीदें’
आयुष्मान भारत (अमित शाह द्वारा ‘मोदीकेयर’ करार दिया गया) के लिए आबंटन 2022 में 6400 करोड़ रुपए था जोकि इससे पहले वर्ष के लिए भी यही राशि थी। यहां पर आंगनवाड़ी तथा आशा कार्यकत्र्ताओं के लिए न्यूनतम मजदूरी और स्वास्थ्य बीमा का कोई प्रावधान नहीं था। आशा वर्करों को मोदी ने ‘कोविड वॉरियर’ कह कर बुलाया था। यह गिनती अपने आप में बेहतर होती दिखाई नहीं दे रही थी। इन्हें सरकार की ओर से बाहरी दखलअंदाजी की जरूरत है मगर ये सब बातें इस बजट में देखी नहीं गईं।
- आकार पटेल
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