वायु प्रदूषण (Air Pollution) फैलाने वालों के विरुद्ध कड़ा रुख दिखाते हुए केंद्र सरकार एक नया अध्यादेश लेकर आई है। विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा जारी अध्यादेश के तहत पूर्व पर्यावरण प्रदूषण (प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण को निरस्त करते हुए राजधानी दिल्ली एवं पड़ोसी क्षेत्रों में उचित वायु गुणवत्ता प्रबंधन हेतु आयोग का गठन किया जाएगा।
28 अक्तूबर, 2020 को जारी अध्यादेश पर माननीय राष्ट्रपति महोदय द्वारा स्वीकृति की मोहर लगा दी गई। इसमें अध्यक्ष एवं दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान के प्रतिनिधि सहित कुल 18 सदस्य होंगे जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाएगी। आयोग के पास मामलों का स्वत: संज्ञान लेने, शिकायतों पर सुनवाई, आदेश जारी करने का अधिकार होगा। किसी प्रावधान, नियम, निर्देश अथवा आदेश का पालन न करना दंडनीय अपराध होगा जिसके तहत 5 वर्ष का कारावास या 1 करोड़ का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। इसे एक शक्ति शाली कमीशन के रूप में देखा जा रहा है। न केवल दिल्ली अथवा एन. सी. आर. अपितु पड़ोसी राज्य भी इसके प्रभावाधीन रहेंगे।
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भले ही सारा दोष किसानों के मत्थे मढ़ा जाता रहा हो लेकिन रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली एवं आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का मूल कारण वाहनों एवं औद्योगिक संयंत्रों द्वारा उत्सॢजत धुआं है। किंतु इस सत्य को भी नहीं नकार सकते कि पराली जलाने से प्रदूषण बढ़ता है। पंजाब की ही बात करें तो प्रतिवर्ष अक्तूबर एवं नवंबर माह में उत्पादित करीब 200 लाख टन पराली में से लगभग 105 लाख टन आग की भेंट चढ़ जाती है। सरकारी योजनाओं, सबसिडी की घोषणाओं तथा जागरूकता कैंपों के आयोजन से भी पराली निस्तारण का कोई ठोस व उचित समाधान संभव नहीं हो पाया, बल्कि कोरोनाकाल में आर्थिक विवशता अथवा श्रम अनुपलब्धता के चलते पिछले दो वर्षों की अपेक्षा पराली जलाने के मामले तीन गुणा बढ़े हैं। सैटेलाइट रिपोर्ट के अनुसार जहां गत वर्ष 21 सितंबर से 24 अक्तूबर के बीच 1744 मामले आए थे वहीं इस बार 12057 मामले प्रकाश में आए।
पराली जलाने का एक बड़ा कारण हैप्पी सीडर/ सुपर सीडर जैसे आधुनिक तकनीकी यंत्रों का महंगा होना है। पराली नष्ट करने में 12 से 15 लीटर प्रति एकड़ तथा खेत जोतने में 4-5 लीटर प्रति एकड़ डीजल की खपत होती है, जिसका खर्चा उठा पाना छोटे किसानों के लिए संभव नहीं। नि:संदेह पराली जलाने से न केवल वातावरण दूषित होता है अपितु कामीन की उर्वरक क्षमता भी प्रभावित होती है। अनेक मित्र जीव अग्नि में भस्म हो जाते हैं।
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माध्यम कोई भी हो, प्रदूषण प्रत्येक दृष्टि से हानिकारक है। स्मॉग के कारण न केवल दुर्घटनाओं में बढ़ौतरी होती है अपितु एयर क्वालिटी का गिरता स्तर श्वसन प्रणाली को प्रभावित करके अनेक रोगों को जन्म देता है। खासतौर पर कोरोना पीड़ितों के लिए यह प्राणघातक सिद्ध हो सकता है। हालांकि पूर्ण विवरण आना अभी बाकी है तथापि जारी अध्यादेश को कृषक हितों से जोड़कर देखें तो कई खामियां नजर आती हैं। सर्वप्रथम, राज्य सरकारों को मध्यस्थता के अधिकार से वंचित रखना इसे एकतरफा साबित करता है। दूसरे शब्दों में, आरोपित को राज्य सरकार से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल पाएगी।
प्रस्तावित अध्यादेश में कोई कृषक प्रतिनिधि अथवा कृषि वैज्ञानिक भी सम्मिलित नहीं जो कृषकों की समस्याओं को सतही तौर पर समझकर कोई सुझाव दे पाए। राज्यप्रतिनिधि की अपेक्षा केंद्रीय स्तर पर चयनित 13 सदस्यों की राय प्रभावी होने का अंदेशा रहेगा जिससे किसानों पर केंद्र की सीधी मार पड़ेगी। कृषि संबंधी कोई भी निर्देश देने का अधिकार कमीशन को निरंकुश बना सकता है। दोषी पाए जाने पर कृषकों को बिजली, पानी आदि की आपूर्ति बंद किए जाने के साथ ही उनके द्वारा धान की रोपाई किए जाने पर भी प्रतिबन्ध लग सकता है। इससे उनके आजीविका प्रबंधन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
निश्चय ही प्रदूषण चिंता का विषय है किंतु भारी-भरकम जुर्माना अथवा 5 वर्ष का कारावास इसका स्थाई समाधान नहीं। समस्या का निराकरण सही उपचार से ही संभव हो पाएगा। किसान पूरे देश का पेट भरता है। केंद्र व राज्य सरकारों का यह संयुक्त दायित्व है कि निजी स्वार्थों अथवा दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर सभी ग्राम पंचायतों में निर्धन किसानों को आधुनिक तकनीकी सुविधाएं मुफ्त/ सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाएं एवं उचित मुआवजे की व्यवस्था करें ताकि पराली प्रदूषण फैलाने का कारण न बनकर, चारा आदि वैकल्पिक प्रयोगों का सदुपयोगी माध्यम बने। आदेश, निर्देश व दंडविधान ऐसे हों जिनसे सीख मिले, न कि वे कृषक वर्ग के लिए फांसी का फंदा बनें। अन्यथा, ऐसा न हो कि पहले ही तीन कृषि कानूनों से जूझ रहे अन्नदाता का आक्रोश लावा बनकर फूट पड़े व समाधान घमासान में परिवर्तित हो जाए।
-दीपिका अरोड़ा
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