दुनिया भर में प्रकृति (Nature) और पर्यावरण (Environment) को लेकर जितनी चिंता वैश्विक संगठनों की बड़ी-बड़ी बैठकों में दिखती है, उतनी धरातल पर कभी उतरती दिखी नहीं। सच तो यह है कि दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में ग्लोबल लीडरशिप की मौजूदगी के बावजूद प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को काबू में नहीं लाया जा सका। उल्टा हमेशा कहीं न कहीं से पर्यावरण के चलते होने वाले भारी-भरकम नुक्सानों की तस्वीरें चिन्ता बढ़ाती रहती हैं।
धरती की सूखती कोख, आसमान का हांफता रूप बीती एक-दो पीढ़ियों ने ही देखा है। इससे पहले हर गांव में कुएं, पोखर, तालाब शान हुआ करते थे। गर्मी की ऐसी झुलसन ज्यादा पुरानी नहीं है। कुछ बरसों पहले तक बिना पंखा, आंगन में आने वाली मीठी नींद भले ही अब यादों में ही है लेकिन ज्यादा पुरानी बात भी तो नहीं। बदलाव की चिन्ता सबको होनी चाहिए।
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सब से मतलब पठार से लेकर पहाड़ और बचे-खुचे जंगलों से लेकर कंकरीट की बस्तियों की तपन तक इस पर विचार होना चाहिए। बढ़ती जनसंख्या, उसी अनुपात में आवश्यकताएं और त्वरित निदान के तौर पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन ही प्रकृति के साथ ज्यादती की असल वजह है। प्राकृतिक वातावरण को सहेजने की बजाय उसे लूटने, रौंदने और बरबाद करने का काम ही आज तमाम योजनाओं के नाम पर हो रहा है।
भारतीय पर्यावरणीय स्थितियों को देखें तो पर्यावरण और प्रदूषण पर चिंता दिल्ली या राज्यों की राजधानी के बजाय हर गांव व मोहल्ले में होनी चाहिए। इसके लिए सख्त कानूनों के साथ वैसी समझ दी जाए जो लोगों को आसानी से समझ आए। लोग जानें कि प्रकृति और हमारा संबंध पहले कैसा था और अब कैसा है। कुछ बरस पहले एक विज्ञापन रेडियो पर खूब सुनाई देता था। ‘बूंद-बूंद से सागर भरता है’। बस उसके भावार्थ को आज साकार करना होगा।
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आज गांव-गांव में कंकरीट के निर्माण तापमान बढ़ा रहे हैं। कुएं बारिश बीतते ही 5-6 महीनों में सूखने लग जाते हैं। तालाब, पोखरों का भी यही हाल है। पानी वापस धरती में पहुंच ही नहीं रहा है। नदियों से पानी की बारह महीने बहने वाली अविरल धारा सूख चुकी है। उल्टा रेत के फेर में बड़ी-बड़ी नदियां तक अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। इसके लिए शुरूआत गांव, मोहल्ले और घर से करनी होगी। जल, जंगल और जमीन के महत्व को सबको समझना और समझाना होगा। इस हाथ ले उस हाथ दे के फॉर्मूले पर हर किसी को सख्ती से अमल करना होगा। धरती का पानी लेते हैं तो वापस उसे लौटाने की अनिवार्यता सब पर हो। जितना जंगल काटते हैं, उस अनुपात में बढ़ते तापमान को काबू रखने के लिए हरियाली बारे सोचा नहीं जाता।
सोचिए, कुछ साल पहले ऐसा था तो अब क्यों नहीं हो सकता? बस यहीं से शुरूआत की जरूरत है। इसी तरह स्थानीय निकायों द्वारा भी जहां-तहां बनने वाली सीमैंट की सड़कों में ऐसी सुराख तकनीक हो जिससे सड़क की मजबूती भी रह आए और बारिश के पानी की एक-एक बूंद बजाय फालतू बह जाने के वापस धरती में जा समाए। खाली जगहों पर हरे घास के मैदान विकसित करें जिससे बढ़ता तापमान नियंत्रित होता रहे। ऐसा ही इलाके की नदी के लिए हो। उसको बचाने व संभालनेे के लिए फंड हो, नदी की धारा निरंतर बनाए रखने के लिए प्राकृतिक उपाय किए जाएं। कटाव रोकने के लिए पहले जैसे पेड़-पौधे लगें। पर्यावरण पर बोझ बनता गाड़ियों का धुंआ घटे। बैटरी से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा मिले। सार्वजनिक वाहन प्रणाली के ज्यादा उपयोग पर ध्यान हो।
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धरती के प्राकृतिक बदलावों के लिए थोड़ी सख्ती और नेकनीयती की जरूरत है। पंचायत से लेकर नगर निगम तक में बैठा अमला भवनों और रिहायशी क्षेत्रों के निर्माण की इजाजत के समय ही हरियाली के प्रबंधन पर सख्त रहे। हर भू-खण्ड पर निर्माण की इजाजत से पहले नक्शे में बारिश के पानी को वापस भू-गर्भ तक पहुंचाने, हर घर में जगह के हिसाब से कुछ जरूरी और पर्यावरणीय अनुकूल वृक्षों को लगाने, लोगों को घरों की छतों, आंगन में गमलों में बागवानी और ऑर्गेनिक सब्जियों को घरों में पैदा करने की अनिवार्यता का जरूरी प्रबंध हो ताकि बचत के साथ स्वास्थ्य का लाभ भी हो।
पालन न करने वालों की जानकारी लेने की गोपनीय व्यवस्था और दण्ड का प्रावधान हो ताकि यह मजबूरी बन सबकी आदतों में शामिल हो जाए। प्रकृति और पर्यावरण की वास्तविक चिंता घर से ही शुरू होने से जल्द ही अच्छे व दूरगामी परिणाम सामने होंगे। जल, जंगल और जमीन के वास्तविक स्वरूप को लौटा पाना तो असंभव है लेकिन वैसा अनुकूल वातावरण बना पाना कतई असंभव नहीं है।
-ऋतुपर्ण दवे
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