सर्वोच्च न्यायालय की यह कोशिश तो नाकाम हो गई कि वह कोई बीच का रास्ता निकाले। सरकार और किसानों (Farmers) की मुठभेड़ टालने के लिए अदालत ने यह काम किया, जो अदालतें प्राय: नहीं करतीं। सर्वोच्च न्यायालय का काम यह देखना है कि सरकार या संसद ने जो कानून बनाया है, वह संविधान की धाराओं का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है? इस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायाधीशों ने एक शब्द भी नहीं कहा।
उन्होंने जो किया, वह काम सरकार या संसद का है या जयप्रकाश नारायण जैसे उच्च कोटि के मध्यस्थों का है। उसका एक संकेत अदालत ने जरूर दिया। उसने तीनों कृषि-कानूनों (Agricultural Bill) को फिलहाल लागू होने से रोक दिया। उसने सरकार का काम कर दिया। सरकार भी यही करना चाहती थी लेकिन वह खुद करती तो उसकी नाक कट जाती। लेकिन अदालत ने जो दूसरा काम किया, वह ऐसा है, जिसने उसके पहले काम पर पानी फेर दिया। उसने किसानों से बातचीत के लिए चार विशेषज्ञों की कमेटी बना दी।
किसान आंदोलन गांधीवादी सत्याग्रह की अद्भुत मिसाल
यह कमेटी तो ऐसे विशेषज्ञों की है, जो इन तीनों कानूनों का खुलेआम समर्थन करते रहे हैं। इनके नाम तय करने से पहले क्या हमारे विद्वान जजों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल जरा भी नहीं किया? क्या ये विशेषज्ञ ही इन तीनों अटपटे कानूनों के अज्ञात या अल्पज्ञात पिता नहीं हैं? हमारे न्यायाधीशों के भोलेपन और सज्जनता पर कुर्बान जाने को मन करता है।
कोरोना महामारी के बीच ‘बर्ड फ्लू’ का कहर
मंत्रियों से संवाद करने वाले किसान नेताओं को नीचे उतारकर अपने सलाहकारों से भिड़वा देना कौन-सी बुद्धिमानी है, कौन-सा न्याय है, कौन-सी शिष्टता है? इस कदम का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हमारी सरकार के नेताओं के पास अपनी सोच का बड़ा टोटा है। हमारा गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र-दिवस में भी बदल सकता है। किसानों ने अभी तक गांधीवादी सत्याग्रह की अद्भुत मिसाल पेश की है और अब भी वे अपनी नाराजगी को काबू में रखेंगे लेकिन सरकार से भी अविलंब पहल की अपेक्षा है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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