Wednesday, Mar 22, 2023
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समाज का आईना है रंगमंच

  • Updated on 3/27/2021

प्रसिद्ध रूसी-अमरीकी नाटककर्मी माइकल चेखव के अनुसार ‘रंगमंच एक जीवंत कला है और यह सच्चाई, सजीवता और मानवता से बंधी होती है। रंगमंच उम्मीदों, कलात्मक भ्रम, कल्पनाशीलता से भरा है। इसमें हम दर्शकों को अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।’ थियेटर (Theatre) या रंगमंच जीवन के विविध रंगों को मंच पर प्रस्तुत करने की जीवंत विधा है। इसमें नृत्य, संगीत, चित्र, अभिनय सहित समस्त कलाओं और विभिन्न प्रकार के कौशलों का समावेश होता है।

रंगमंच पर जब समाज की दशा को जीवंत किया जाता है तो दर्शक उसके साथ आसानी से जुड़ जाता है। रंगमंच सही गलत के भेद को बारीकी से चित्रित करता है। आम आदमी के मसलों के साथ खड़े होकर जनपक्ष को मजबूत करता है और जनविरोधी ताकतों की अमानवीयता को नंगा करता है। रंगमंच सवाल खड़े करता है। हर प्रकार की जड़ता और यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह करता हुआ रंगमंच एक बेहतर समाज की परिकल्पना तैयार करता है। रंगमंच समाज का आईना ही नहीं है, बल्कि परिवर्तन का सशक्त औजार भी है। रंगमंच सहित कला की अन्य विधाओं को समाज में हल्के ढंग से देखा जाता है। जब कोई व्यक्ति विशेष अंदाज में अपनी बात रखने की कोशिश करता है तो प्राय: कह दिया जाता है ‘क्यों नाटक कर रहा है।’ 

वजन तोलने की दोषपूर्ण मशीन

नाटक करना इतना सहज कार्य नहीं है, जितना आम दर्शक सोचते हैं। लंबे समय तक देह, दिल व दिमाग पर मेहनत करने के बाद कलाकार पैदा होता है और यही स्थिति एक प्रस्तुति पर भी लागू होती है। रंगमंच या नाटक जीवन से कम नहीं है। यह जीने का तरीका भी है। नाटक सिर्फ नाटक करने वालों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए है। यह सभी को जीवन-दृष्टि देता है। सदियों पहले भरत मुनि द्वारा ‘नाट्यशास्त्र’ की रचना से नाटक विधा का प्रारम्भ माना जाता है। इसमें रंगमंच के मंच संयोजन, वेशभूषा व पाश्र्व गायन आदि सभी रूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस रचना की महत्ता को देखते हुए इसे पंचमवेद कहा जाता है।

माना जाता है कि नाट्य विधा के प्रति भेदभाव की दृष्टि के कारण इसे वेद का दर्जा नहीं दिया गया। संभवत: इसी का परिणाम रहा कि समाज में कलाकारों व अभिनेताओं को हेय दृष्टि से देखा गया। लेकिन आज स्थितियां बदल रही हैं। आधुनिक भारत में रंगमंच के सिद्धांतों को प्रयोगात्मक रूप देने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चन्द्र को जाता है। वे हिन्दी रंगमंच के पितामह कहे जाते हैं। भारतेन्दु ने भारत-दुर्दशा, नीलदेवी व वैदिक हिंसा-हिंसा न भवति सहित अनेक नाटक लिखे और खेले। उनका नाटक अंधेर नगरी आज भी प्रासंगिक माना जाता है और आज भी अनेक नाटक मंडलियां उसका मंचन करती हैं। आजादी से पहले रंगमंच के विकास में पृथ्वीराज कपूर और आगा हश्र कश्मीरी का अहम योगदान रहा। 

तरक्की की उम्मीद सरकार से नहीं, खुद से होनी चाहिए

रंगमंच एवं कलाओं के विकास में इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। इप्टा ने रंगमंच, जनगीतों और कलाओं को अंग्रेजी दासता एवं सामाजिक बुराइयों से मुक्ति का माध्यम बनाया। इप्टा प्रख्यात फिल्मी कलाकारों ए.के. हंगल, जोहरा सहगल और बलराज साहनी की अभिनय पाठशाला साबित हुई। मौजूदा दौर में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना और नाट्य प्रशिक्षण में इब्राहिम अल्काजी ने अहम भूमिका का निर्वाह किया। इस संस्थान के निर्देशक, शिक्षक व विद्यार्थी रही अनेक शख्सियतों ने रंगकर्म के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किए। 

विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, उत्पल दत्त, बलवंत गार्गी, गिरीश कर्नाड, के.एन. पणिक्कर, बीवी कारंत, रतन थियम, बंसी कौल, कीर्ति जैन, रामगोपाल बजाज, अनुराधा कपूर, मोहन महर्षि, नीलम मानसिंह, माया कृष्णा राव, रूद्रप्रताप सेन गुप्ता, भानु भारती, त्रिपुरारी शर्मा, केवल धालीवाल, साबित्री मां, कन्हाई लाल, नेमिचंद्र जैन, शांता गांधी, सत्तू सेन, शंभु मित्रा सहित अनेक नाटककारों एवं निर्देशकों ने भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाया। 

उद्देश्यपूर्ण नाटकों की श्रेणी में महान नाटककार, लेखक, प्रयोगधर्मी हबीब तनवीर की नाट्यधर्मिता के संदर्भ में जितना कहा जाए कम है। विदेशों में पढ़ाई करने के बावजूद तनवीर ने अपनी कर्मस्थली भारत के उन पिछड़े गांवों को बनाया जिनके बाशिंदों के लिए दो जून की रोटी जुटाना एक समस्या होती है। नाट्य विधा में असीम क्षमताएं हैं। अनेक निर्देशकों ने अनगढ़ लोगों और बच्चों को लेकर नाटक किए। धीरे-धीरे वे अनगढ़ नाट्यकर्मी परिपक्व कलाकार के रूप में विकसित हो गए। नाटक करते समय कलाकार की देह, दिल व दिमाग सभी का विकास होता है। उनमें मिल कर काम करने की संस्कृति का विकास होता है।

-अरुण कुमार कैहरबा

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