भारत (India) में बेटियों के साथ संघर्ष चल रहा है। निर्भया, कठुआ, उन्नाव, मुजफ्फरनगर, तेलंगाना आदि की भयावह घटनाओं के बाद सितंबर में उत्तर प्रदेश के हाथरस (Hathras) जिले में एक भयावह घटना घटी जहां पर एक 19 वर्षीय दलित किशोरी के साथ उच्च जाति के चार पुरुषों द्वारा सामूहिक बलात्कार (Gangrape) किया गया, उसे निर्वस्त्र किया गया, उसका गला दबाया गया, उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़कर उसे पंगु बनाया गया और उसकी जीभ काट दी गई जिसके चलते 29 सितंबर को उसकी मौत हो गई।
इस भयावह घटना से संपूर्ण देश में पुन: आक्रोश है। पुलिस ने समय पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की, न ही पीड़िता को अस्पताल ले गई और समुचित साक्ष्य एकत्र नहीं किए, फॉरैंसिक जांच नहीं की और इस घटना के अभियुक्तों को 9 दिन बाद 23 सितंबर को गिरफ्तार किया गया। अलीगढ़ के जिस अस्पताल में पीड़िता का उपचार किया गया वहां पर पीड़िता की फोरैंसिक जांच 11 दिन बाद की गई और फिर 28 सितंबर को दिल्ली में उसकी फॉरैंसिक जांच की गई और तब तक यह पुष्टि करना कठिन हो गया कि पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ और अगले दिन उसकी मौत हो गई।
‘सितारों के आगे जहां और भी हैं’
जले पर नमक छिड़कते हुए पुलिस ने पीड़िता के दुखी परिवार को अपने ही घर में कैद कर दिया। उसके शव को अंतिम संस्कार के लिए उसके परिवार को नहीं सौंपा गया और रात के अंधेरे में उसके गांव में उसके शव को जला दिया गया। हैरानी की बात यह है कि राज्य तंत्र जो बलात्कार की घटना रोकने तथा उसकी शिकायत का संज्ञान लेने में ढुलमुल रवैया अपना रहा था वह इस घटना के बाद यकायक सक्रिय हो गया। प्रशासन एक दूसरी कहानी कहने लगा कि पीड़िता के साथ मारपीट हुई पर उसके साथ बलात्कार की घटना नहीं हुई। जबकि इस 19 वर्षीय पीड़िता ने पुलिस को इसके विपरीत बयान दिया था।
अपराध की जघन्यता और पुलिस की उदासीनता के कारण तथा अन्याय और असमानताओं के कारण हम शर्मसार हैं। पुलिस ने अपनी अक्षमता और उदासीनता को छिपाने के लिए लोक व्यवस्था के लिए खतरे की आड़ में उस गांव में धारा 144 लागू की और मीडिया को गांव में प्रवेश की अनुमति नहीं दी। पीड़िता दलित वाल्मीकि समुदाय की थी और उस पर हमला करने वाले उच्च जाति के लोग थे। इससे जातिवादी भारत के पुराने घाव हरे हो गए हैं और हमें इस बात का स्मरण कराने लगे हैं कि जाति को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है।
नई कृषि नीति से ‘शहरी उपभोक्ता’ भी पिसेगा
जब राज्य निष्पक्षता से कार्य करने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराए, तटस्थता से काम करे, कानून को तटस्थता से लागू करे तभी शक्तिशाली लोगों को कानून का उल्लंघन करने से रोका जा सकता है। समय आ गया है कि केन्द्र और राज्य सरकारें महिलाओं की सुरक्षा की तत्काल समीक्षा करें और अपने पुलिस बलों से जवाबदेही की मांग करें। कानून के संरक्षक जब तक कानून के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे तब तक वे शक्तिशाली बाहुबलियों के हाथ के खिलौने बने रहेंगे। पुलिस बल को बलात्कार की घटनाओं को तत्काल दर्ज करना चाहिए और न्यायपालिका को इन मामलों को लटकाने के बजाय उनकी त्वरित सुनवाई करनी चाहिए। बलात्कार से जुड़े कानूनों को कठोर बनाने के बावजूद यौन उत्पीडऩ की घटनाएं आमतौर पर देखने को मिल रही हैं। भारत में प्रत्येक एक मिनट में बलात्कार की चार घटनाएं होती हैं।
ऐसे समाज में जहां पर हमारे पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं और युवतियां निरंतर असुरक्षित वातावरण में रह रही हैं, जहां पर उन्हें सैक्स की वस्तु के रूप में पुरुषों की काम पिपासा शांत करने के साधन के रूप में देखा जाता है शायद इसका संबंध हमारे पितृ प्रधान समाज से भी है। निर्भया मामले के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों के कार्यान्वयन की स्थिति भी अच्छी नहीं है। वर्ष 2016 में बलात्कार के 35000 मामले दर्ज किए गए और केवल सात हजार मामलों में दोषियों को दंड दिया गया।
बलात्कार की घटनाओं से जीवित महिलाओं के प्रति पुलिस की उदासीनता, जांच में खामियां आदि देखने को मिली हैं और इसको देखकर लगता है कि महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा के मामले में एक समाज के रूप में हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाने से भाग रहे हैं। ऐसे वातावरण में जहां पर नैतिक पतन सर्वत्र देखने को मिल रहा है हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि महिलाएं कब तक पुरुष के भेस में पशुओं के हाथ का खिलौना बनी रहेंगी। कोई भी सभ्य समाज बलात्कार की पीड़िताओं का मुंह बंद करने को सहन नहीं करेगा।
-पूनम आई. कौशिश
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