नई दिल्ली/ब्यूरो। समय के साथ लोगों की सोच बदल रही है। लड़का और लड़की के बीच में भेद मिट रहे हैं,लेकिन मासिक धर्म से जुड़े टैबू और मिथ बदलने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। शायद यही वजह है कि लाख कोशिशों के बावजूद सोसाइटी में लड़के लड़कियों के बीच का अंतर नहीं मिट पा रहा है।
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हमें यह समझना होगा कि जैसे दिल की धड़कन नॉर्मल है वैसे ही मासिक धर्म भी नॉर्मल है। इसलिए सेनेट्री नैपकिन को काली पन्नी में लपेटने की जरुरत नहीं है। इसे शर्मिंदगी के तौर पर नहीं बल्कि हेल्दी वुमेन के तौर पर लेना चाहिए। यह कहना है भारत की प्रसिद्ध गाइनोकॉलजिस्ट डॉ मंदाकिनी प्रधान का।
उन्होंने बताया कि जब एक उम्र के बाद यदि किशोरियों को मासिक धर्म नहीं होता है तो फिर उन्हें समाज हेय दृष्टि से देखता है। बड़े होने पर ऐसी लड़कियों से कोई शादी नहीं करता है। तो फिर जिन्हें मासिक धर्म होता है उन्हें सेहतमंद की श्रेणी में समझाना चाहिए और ऐसे मुद्दों से शर्माने की जरुरत नहीं है।
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पीरियड्स के दर्द को समाज से छुपाने की जरुरत नहीं फेसबुक और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बतौर एक्टिविस्ट काम करने वाली रीवा का कहना है कि पीरियड्स के दर्द को समाज से छुपाने की जरुरत नहीं है। बिना मतलब की शर्म और हया के कारण ही लड़कियां कुछ कह नहीं पाती हैं जिसकी वजह से उन्हें इंफेक्शन से लेकर कैंसर जैसी बड़ी बीमारियों का भी सामना करना पड़ता है।
स्कूल कॉलेज में एक्सीडेंट पीरियड होने पर लड़कियों को अपना दर्द छुपाने के लिए सर दर्द जैसे बहानों को बताना पड़ता है उन बहानों से हटने की जरुरत है। मासिक धर्म से जुड़े मिथ तभी टूटेंगे जब इस संबंध में लड़कों को भी जागरूक किया जाए। वरना शर्म और हया की शिकार लड़कियां बीमारियों की चपेट में आती रहेंगी।
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पुरुषवादी समाज की देन है यह शर्म अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की सदस्य सीमा राणा का कहना है कि मासिक धर्म से जुड़े जितने भी मिथक या टैबू हैं वह पुरूषवादी समाज की देन है। मकसद महिलाओं को दबाना है। जबकि महिलाओं को यह समझना होगा कि प्रकृति ने उन्हें सृजन की शक्ति दी है। यह सृजन की शक्ति ही मासिक धर्म के रूप में हर महीने उन्हें मातृत्व का अहसास दिलाता है भले ही वह शादी शुदा हो या ना हो।
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