ओलंपिक खेलों में किसी भी भारतीय एथलीट का प्रदर्शन हमारे राजनीतिज्ञों से बेहतर किसी भी हालत में हो ही नहीं सकता।
जब कभी भी किसी ओलंपिक विवाद की बात होती है तो भारत में सभी राजनीतिक दलों का एक ही सांझा एजैंडा होता है-अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करना, बिजनेस क्लास में यात्रा करना, ऐसे में चेले-चांटों को अपने साथ ले जा कर यदि विवाद पैदा हो तो हो। प्रतियोगिता में भाग लेने वाले एथलीटों की समस्याओं या उनकी सुविधाओं की बात तो पृष्ठïभूमि में धकेल दी जाती है।
यदि बीजिंग ओलंपिक खेलों के दौरान आईओए के तत्कालीन अध्यक्ष सुरेश कलमाडी उस समय भारत के लिए ताजा-ताजा पहला स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिद्रा का उल्लेख बार-बार ‘अविनाश’ कह कर करते रहे थे तो इस बार रियो में खेल मंत्री विजय गोयल ज्यादातर एथलीटों के गलत नाम ले कर गुलगपाड़ा करते रहे और वह भी ट्विटर पर।
यही नहीं, बिना अनुमति के प्रतिबंधित क्षेत्रों में प्रवेश करने के कारण न सिर्फ उन्होंने सुरक्षा संबंधी समस्याएं उत्पन्न कीं बल्कि भारत को आधिकारिक रूप से प्रताडऩा भी झेलनी पड़ी।
यही नहीं हमारे बेचारे थके-हारे एथलीटों को उनके साथ सैल्फियां खिंचवाने के लिए भी विवश होना पड़ा जो समय बिताने का भारतीय राजनीतिज्ञों का संभवत: सर्वाधिक पसंदीदा माध्यम है।
जहां नैशनल राइफल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रणइंद्र सिंह (कांग्रेस सांसद अमरेंद्र सिंह के पुत्र) व्हाट्स एप्प गु्रपों पर रियो में जिन पार्टियों में उन्होंने भाग लिया उनके फोटो पोस्ट करने में व्यस्त रहे, वहीं हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने अपने दस मित्रों और प्रशंसकों के साथ रियो का दौरा किया और वे लोग सीधे शहर के दूसरे छोर पर स्थित एक समारोह में जा पहुंचे जहां बहुत विशेष यातायात प्रणाली लागू होने के कारण वहां से गुजरने वालों को विशेष ‘पासों’ की जरूरत थी जो सब लोगों के लिए प्राप्त नहीं किए गए थे।
यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि श्री विज तथा उनके साथी इस समारोह में उस समय भाग लेने गए जब खेल परिसर में भारतीय एथलीटों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मुकाबले जारी थे।
सब लोग अनिवार्य रूप से समुद्र तट की सैर को तो गए ही लेकिन इनमें सबसे आश्चर्यजनक यात्रा तो अभय चौटाला की रही, जो जेल से जमानत पर बाहर आए थे। उनका यह पग किसी भी प्रतिभागी के लिए प्ररेणास्रोत किस प्रकार हो सकता है?
इससे पूर्व हुए ओलंपिक आयोजनों में भी इसी प्रकार की घटनाएं देखने को मिलती रही हैं जिनमें चंद बातें सदा एक जैसी ही रही हैं-एथलीटों को तो न ही आवश्यक बुनियादी ढांचा और न ही आवश्यक सुविधाएं दिलवाई गईं लेकिन राजनीतिज्ञों तथा भारतीय ओलंपिक संघ के अधिकारियों के लिए बिजनेस क्लास मेें यात्रा से लेकर अन्य तमाम सुविधाएं अवश्य आरक्षित रहीं। अब ऐसी नीतियों को बदलने के समय आ गया है।
अमरीका की भांति हमारे यहां भी किसी खेल मंत्रालय की आवश्यकता नहीं है और खेलों के लिए निवेश निजी फर्मों और कालेजों से उपलब्ध करवाया जाना चाहिए और स्वर्ण पदक जीतने मेंं सक्षम ललिता बाबर जैसे खिलाडिय़ों को दिन के समय मुम्बई के घाटकोपर स्टेशन पर टिकट चैक्कर की नौकरी करने के लिए विवश न होना पड़े ताकि शाम के समय वे अभ्यास कर सकें।
यदि हम चाहते हैं कि 4 वर्ष बाद होने वाले टोक्यो ओलंपिक में हमारे एथलीटों का प्रदर्शन रियो के प्रदर्शन से भिन्न हो तो हमें उन्हें मैट, जूते और अन्य आवश्यक साज सामान उपलब्ध करवाना होगा। हमें खिलाडिय़ों के आराम का ही नहीं बल्कि उनके भोजन का भी ध्यान रखना होगा।
खिलाडिय़ों के साथ रियो भेजे गए 2 रेडियोलोजिस्टों की बजाय हमेें उनके साथ सुप्रशिक्षित फिजि़योथैरेपिस्टों और डाक्टरों को भेजने की आवश्यकता है जो उन्हें लगने वाली चोटों का प्रभावशाली तरीके से इलाज कर सकें।
यही नहीं ओलंपिक खेलों की शुरुआत से पूर्व प्रत्येक खिलाड़ी को उसकी वर्दी उपलब्ध करवाना भी जरूरी है जिस पर ‘भारत’ लिखा हो। इस ओलंपिक में तो भारतीय खिलाडिय़ों के लिए सही फिटिंग वाली वॢदयों का भी टोटा पड़ गया, अन्य चीजें तो उन्हें क्या मिली होंगी!
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