नई दिल्ली (टीम डिजिटल)। सत्तर और अस्सी के दशक में वैकल्पिक सिनेमा में सक्रिय रहीं रत्ना पाठक शाह को लगता है कि उनके जैसे सैकड़ों कलाकारों को आकर्षित करने वाला यह आंदोलन अंतत: मौलिक विचारों और कहानियों के अभाव में फीका पड़ गया।
‘कपूर एंड संस’ की अभिनेत्री ने कहा कि दिलचस्प किरदारों और दुनिया को बदलने की युवा मन की इच्छा ने शहर के पढ़े-लिखे बहुत से अभिनेताओं को ऐसी फिल्में करने के लिए प्रोत्साहित किया।
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अभिनेत्री ने कहा, ‘युवाओं की इच्छा थी कि वे ऐसी फिल्में बनाएं जो दुनिया को बदल डालें। हालांकि मुझे ऐसा होता नहीं दिखा। जो फिल्में बनाई गईं वे अन्य से बेहतर थीं लेकिन वे सब को प्रभावित नहीं कर पाईं।’
उन्होंने कहा, ‘आंदोलन फीका पड़ गया, क्योंकि इस तरह की फिल्में बहुत सारे लोगों ने बनाई लेकिन उनके पास बताने के लिए और ज्यादा दिलचस्प कहानियां नहीं थी। पूरा आंदोलन धीरे-धीरे एक तरह से खत्म हो गया।’ 59 वर्षीय अभिनेत्री का मानना है कि वैकल्पिक सिनेमा, ऐसी चीजों की बात करता था, जिनको मुख्यधारा की हिन्दी फिल्में संबोधित नहीं कर रही थीं।
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उन्होंने कहा, ‘उस समय बड़े हुए बहुत से शहरी बच्चों को नहीं पता था कि ग्रामीण भारत में जीवन कैसा होता है और ये ‘अंकुर’, ‘मिर्च मसाला’, ‘मंथन’ या ‘पार’ जैसी फिल्मों से सामने आता था। उन्होंने हमें भूमिकाएं दीं जो मुख्यधारा से अलग थीं।’ उन्होंने कहा कि इन फिल्मों ने लोगों को कुछ अवसर दिए और जीवन की वास्तविकता दिखाई।
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