नई दिल्ली/चंदन जायसवाल। हर संगीतकार, गीतकार, शायर, डायरेक्टर का एक दौर होता है। अपने दौर में वो बुलंदियों को छूता है और फिर वक्त के साथ उस सितारे की चमक धुंधली पड़ जाती है। मगर गुलजार (Gulzar) साहब एक ऐसे इंसान हैं, जिन्होंने इस बात को गलत साबित किया है। गुलजार साहब ने जमाने को सिखाया है कि 85 साल का एक कवि या शायर कैसे जमाने से कदम मिला सकता है और अपने शब्दों की खुशबू से लोगों को महका सकता है।
गुलजार की फिल्में लोगों के निजी सुख-दुख की कहानी कहती हैं। खास बात यह है कि कब इन किरदारों के दुख-सुख की कहानी बड़े सामाजिक या राजनीतिक संदर्भों से जुड़ जाती थी, दर्शक को उसका पता ही नहीं लगता था। न तो गुलजार की फिल्मों में सत्तर के दशक की जबरन आंसू बहाने वाली भावुकता थी और न ही थोपे हुए सामाजिक सरोकार।
यह समझना मुश्किल है कि आंधी पति-पत्नी के निजी रिश्तों की कहानी है या भारतीय राजनीति में पनप रही बुराइयों की। नमकीन में एक ट्रक ड्राइवर और उसके जीवन में आई तीन बहनें छोटे कसबों के सामाजिक जीवन को पर्त-दर-पर्त जिस तरह खोलती हैं, वैसा गुलजार की फिल्मों में ही संभव है।
गुलजार मुख्यधारा के सिनेमा से बहुत दूर नहीं जाते मगर उनकी फिल्में इतने सालों बाद भी अलग खड़ी नजर आती हैं। उन्होंने यह भ्रम मिटा दिया कि ऑफबीट कभी भी मुख्यधारा में लोकप्रिय नहीं हो सकता। गुलजार की फिल्में ऑफबीट होते हुए भी मुख्यधारा के सिनेमा की तरह चलती रहीं।
सत्तर के दशक में जब फिल्म की पहली रील में भाई-भाई के अलग होने और फिर उनके मिल जाने या फिर हीरो के स्मगलर बन जाने और बाद में उसके रास्ते पर आ जाने वाली कमर्शियल फिल्में बन रही थीं तो उसी दौर में गुलजार की फिल्में आनी शुरू होती हैं।
'मौसम', 'परिचय', 'अंगूर' और 'नमकीन' फिल्मों का क्राफ्ट और कैनवास देखिए। इन फिल्मों का क्रॉफ्ट उस समय बन रही फिल्मों से बिल्कुल अलग था। लेकिन इन फिल्मों को गौर से देखने से लगता है कि मुख्य धारा के सिनेमा के दर्शकों को भी यही चाहिए। इन सभी फिल्मों की खासियत यह थी इन फिल्मों के पात्र हमें हमारे बीच के पात्र लगते। ऐसी घटना जो किसी के भी साथ हो सकती है।
एक फिल्म आंधी आती है। कमलेश्वर की लिखी यह फिल्म यह बताती है कि राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक विषयों को जोड़कर एक ऐसा सिनेमा भी बनाया जा सकता है।
'अंगूर' की कॉमेडी को देखिए। यह सिर्फ दो हमशक्लों के एक ही शहर में हो जाने का हास्य नहीं था। फिल्म को इस तरह से ट्रीट किया था जहां हर फ्रेम में हास्य उमड़ता है। किरदारों की हालत सोचकर हंसी आती है। फिल्म देखकर दर्शक उन पात्रों को खुद से जोड़कर खुद हंस रहे होते हैं।
'अंगूर' में गुलजार जिस तरह पात्रों की हंसी हम तक पहुंचाते हैं 'मौसम' और 'नमकीन' में उनके दुख भी दर्शकों तक पहुंचते हैं। पात्र स्थापना के मामले में भी गुलजार का कोई मुकाबला नहीं हैं। संजीव कुमार यदि एक बड़े अभिनेता के रूप में पहचाने गए तो इसके पीछे गुलजार की छिपी मेहनत थी।
सत्यजीत रे ने मानव मन के न जाने कितने अनछुए, अनकहे पहलुओं को अपनी फिल्मों में टटोला है। गुलजार को भी मानव मन का चितेरा कह सकते हैं। किनारा, लेकिन, खुशबू, इजाजत जैसी फिल्मों को आसानी से इस कैटेगरी में रखा जा सकता है। उनकी एक बहुत कम चर्चित फिल्म किताब को ही लें, बाल मनोविज्ञान को इतनी गहराई से अभिव्यक्त करने वाली फिल्में हिन्दी सिनेमा में दुर्लभ हैं।
90 के दशक में भी जब गुलजार गीत लिखने में ज्यादा व्यस्त हो गए तब भी उनकी फिल्में आती रहीं। हमेशा की तरह उस वक्त में बन रहे सिनेमा से अलग लेकिन उसी दौर के सिनेमा को रचते हुए। यदि गौर करें तो गुलजार अपनी रचनात्मकता के इस दौर में आकर राजनीतिक रूप से ज्यादा मुखर और आक्रामक हुए। हूतूतू और माचिस जैसी फिल्में इसका बेहतरीन उदाहरण हैं।
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