नई दिल्ली,टीम डिजिटल। बचपन वह समय होता है जब भविष्य के बीज बोए जाते हैं और बाल दिवस पर, ज़ी थिएटर के दो सितारों ने उन पलों को याद किया जहाँ से उनकी कला यात्रा शुरू हुई. ज़ी थिएटर के टेलीप्ले, 'लाइट्स आउट' में अभिनय करने वाले करण वीर मेहरा और 'व्हाइट लिली एंड नाइट राइडर' की अभिनेत्री सोनाली कुलकर्णी ने सुनहरी यादों को ताज़ा किया. मेहरा कहते हैं, "मैं 4 या 5 साल का था, जब मैंने अपने जन्मदिन पर अमिताभ बच्चन की 'शहंशाह' की पोशाक पहनी थी और तभी से अभिनय की चाह ने मुझे घेर लिया।"
मेहरा फुटबॉल, क्रिकेट और बैडमिंटन जैसे खेलों से जुड़े रहकर अपने भीतर के बचपन को जीवंत रखने में विश्वास करते हैं और अपने बचपन के दोस्तों को बहुत याद करते हैं. वे कहते हैं, "वह बचपन जिसे हमने नैसर्गिक तरीके से जिया, आज हमसे दूर चला गया है. हर तरफ टेक्नोलॉजी का प्रभाव है और मेरा भतीजा, जो तीन साल का भी नहीं है, फोन का उपयोग करना और टीवी चालू करना सीख गया है। हमें बच्चों को जीवन के सही रूप से परिचित करना चाहिए और उनके स्क्रीन टाइम को सीमित करना चाहिए ।"
सोनाली कुलकर्णी अपने बचपन को याद करती हैं और कहती हैं, "जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं, तो मेरे दिमाग में तुरंत मेरे दो बड़े भाइयों, माँ, पिताजी और अज्जी की छवि ताज़ा हो जाती है. हम खाने की मेज पर स्वादिष्ट भोजन का आनंद ले रहे हैं और सभी हंस रहे है क्योंकि मैं शायद कविता सुना रही हूँ या कुछ अभिनय कर रही हूँ. साथ ही मुझे याद आते हैं वो त्यौहार जो हम सभी रिश्तेदारों के साथ मिलजुल कर मनाते थे और पड़ोसियों के साथ मिल कर नाटकों का मंचन करते थे. तभी से शायद अभिनेत्री बनने की इच्छा मन में जागृत हुई ."
सोनाली अपनी मासूम सरलता को अपने भीतर जीवित रखने की कोशिश करती हैं और कहती हैं, "मैं लोगों की उदारता से तारीफ करती हूं और मुझे खुले दिल से जीवन और लोगों के प्रति आभार प्रकट करना पसंद है. मुझे खुशी है कि मुझे काम मिल रहा है, मेरे घर में पर्याप्त भोजन है, मेरे पास एक घर है, और एक प्यारा परिवार है। बच्चे स्वाभाविक रूप से खुश रहते हैं और मैं भी वैसे ही रहना चाहती हूँ. वे बिना कारण के खुश होते हैं और उन्हें इस बात का विश्वास होता है की जीवन की हर ख़ुशी पर उनका हक़ है. मैं भी अपने भीतर उसी गुण को जीवंत करना चाहती हूं।"
सोनाली अपने बचपन को परिभाषित करने वाले पारिवारिक मेलजोल को याद करते हुए कहती हैं, '' अब चीजें बहुत औपचारिक हो गई हैं, और हमें किसी के घर जाने से पहले उन्हें सूचित करना पड़ता है । मिलने और जुड़ने के अवसर भी कम हो गए हैं और बच्चे भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर बहुत अधिक निर्भर हो गए हैं। किसी शहर में फिल्म देखने के लिए भी बाहर निकलना बोझिल है और ज्यादातर परिवार घर पर रहना पसंद करते हैं इसलिए हां, डिजिटल कनेक्शन बढ़ रहे हैं जबकि मानवीय कनेक्शन कम हो रहे हैं। मुझे लगता है कि हम सभी को इत्मीनान से बातचीत करने की कला को वापस लाना चाहिए और उपकरणों की बजाय वास्तविक लोगों के साथ अपने जीवन को साझा करना चाहिए ।"
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