Sunday, Jun 04, 2023
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आई बसंत बहार सखी चल पीर कै द्वार

  • Updated on 2/4/2022

नई दिल्ली। अनामिका सिंह। ‘सकल बन फूल रही सरसों/बन बिन फूल रही सरसों/अम्बवा फूटे टेसू फूले/कोयल बोले डार-डार/’ या फिर ‘दैया री मोहे भिजोया री/शाह निजाम के रंग में/कपरे रंगने से कुछ न होवत है/ या रंग में मैंने तन को डुबोया री/’ व ‘आई बंसत बहार/सखी चल पीर कै द्वार’ जैसी कव्वालियों से बंसत का मौसम और भी खुशगवार हो उठता है। हर ओर सरसों के फूलों की सुंदरता और पीले रंग की रंगत पूरे माहौल को खुशनुमा बना देती है। ऐसे में यदि निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर सिर झुक जाएं तो जीवन सफल हो जाता है, मालूम हो कि 5 फरवरी यानि आज धूमधाम से औलिया की दरगाह पर बसंतोत्सव मनाया जाएगा। आइए जानते हैं कि आखिर क्यों मनाई जाती है दरगाह पर बसंत पंचमी।
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12वीं शताब्दी से शुरू हुआ सूफी बसंतोत्सव
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, मुसलमानों में सूफी बसंत मनाने का प्रचलन 12वीं शताब्दी में शुरू हुआ, जिसका जन्मदाता अमीर खुसरो को माना जाता है। इनके आध्यात्मिक गुरू ख्वाजा हजरत निजामुद्दीन औलिया थे, जिनके लिए खुसरों ने कई कव्वालियां व गीत लिखे। खुसरो को उर्दू का जनक भी कहा जाता है, जोकि उस समय जनमानस की भाषा बन गई थी। हर साल सूफी बसंत इस्लामिक कैलेंडर के पांचवे महीने में जूमादा अल अव्वल के तीसरे दिन मनाया जाता है। दरगाह शरीफ के इंचार्ज सैयद मोहम्मद सलमी ने बताया कि ख्वाजा अपनी बहन के बेटे से बहुत स्नेह करते थे, उसकी असमय मौत से वो बेहद उदास हो गए और लोगों से मिलना-जुलना बंद कर दिया। खुसरो उनको खुश करने का प्रयास करने लगे। खुसरो रास्ते से जा रहे थे तो उन्होंने पाया कि महिलाएं पीले रंग के कपडे पहनकर, सरसों व गेंदे के पीले फूलों को हाथ में लेकर गा रही हैं। औरतों को देखकर खुसरो बेहद खुश हुए और उन्होंने औरतों से नाचने-गाने के बारे में पूछा, तो औरतों ने कहा कि इससे खुशी मिलती है पीला रंग खुशहाली का प्रतीक है। कहते हैं कि खुसरो पीले कपडे पहनकर, सरसों के पीले फूलों का गुलदस्ता व गेंदे के फूल लेकर ख्वाजा के सामने पहुंचे और खूब नाचने-गाने लगे। उनकी मस्ती देखकर ख्वाजा की हंसी लौट आई और तबसे हर साल दरगाह पर बसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाने लगा।
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पीले फूलों से होती है सजावट
गुरू-शिष्य की कहानी से जुडा बसंतोत्सव का त्यौहार हजरत ख्वाजा निजामुद््दीन औलिया की दरगाह पर बडे ही धूमधाम से हर साल मनाया जाता है। इस दिन के लिए विशेष पीले रंग के फूल व सजावट के अन्य सामानों से दरगाह को सजाया जाता है। मन्नत को पूरा करने के लिए लोग यहां सरसों के फूलों का गुलदस्ता व गेंदे के पीले फूलों वाली चादर के साथ पीले रंग के कपडे जिसकी किनारी पर सुनहले रंग का गोटा लगा होता है उसे चढ़ाते हैं। 
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लोग पहनकर आते हैं पीले लिबास
औलिया को खुश करने के लिए यहां लोग पीले रंग के लिबास पहनकर आते हैं। इतना ही नहीं ख्वाजा को खुश करने के लिए पीले पकवानों का भंडारा लगाया जाता है। इस दिन को खास बनाने के लिए दूर-दूर से कव्वाल आते हैं और आमिर खुसरों की लिखी कव्वालियों को गाते हैं, मान्यता है कि इन्हें सुनकर ख्वाजा बेहद खुश हो जाते हैं। 


 

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