नई दिल्ली/कुमार आलोक भास्कर। राजनीति भी एक प्रयोगशाला है। जहां हर वक्त नया प्रयोग होते रहता है। जिसके लैब से समय-समय पर कई नेता पैदा लेते रहे है। आपका दांव इस राजनीतिक प्रयोगशाला में सही चल गया तो आप राजा और कहीं दांव फिट नहीं बैठा तो हाशिये पर जाने में देर नहीं लगती है। इसकी एक बानगी अगर देखनी हो तो बिहार में ही पिता रामविलास पासवान समय दर समय राजनीति में झंडे बुलंद करते गए तो बेटा चिराग पासवान इसके ठीक उलट हाशिये पर जाने के लिये मजबूर है।
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बिहार में हाशिये पर पहुंचा लोजपा
देश से इतर बिहार में सियासत के रंग भी जुदा है। आलम तो यह है कि हमेशा से बिहार की राजनीति समय-समय पर राजनीतिक पंडित से लेकर सभी को चौंकाती रही है। बीते साल जब बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई तो अचानक से लोजपा एक नई लकीर खींचने की कोशिश की। जिससे दिल्ली से लेकर बिहार तक राजनीतिक भूचाल आ गया। बिहार में इस भूचाल से भले ही एनडीए की सेहत पर कोई खास असर नहीं आया हो लेकिन लोजपा की सियासत को हाशिये पर ला खड़ा कर दिया है। ऐसे में लोजपा को आज स्वर्गीय रामविलास पासवान की बहुत याद आती है। जिन्होंने हर हाल में अपनी पार्टी को सत्ता में बनाए रखा। वहीं चिराग की क्षमता पर सवाल उठना लाजिमी है।
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जदयू,लोजपा की लड़ाई में बीजेपी ने उठाया फायदा
हालांकि जदयू और लोजपा की आमने-सामने की लड़ाई में बीजेपी बीस साबित हुई हैं। चिराग के उस फैसले से बीजेपी को फायदा हुआ जिसमें बीजेपी के खिलाफ उम्मीदवार तो नहीं उतारा लेकिन जदयू के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया। चिराग के इस मास्टरस्ट्रोक से जदयू धराशाई होकर आधी सीट ही जीत पाई। लेकिन अफसोस जदयू के एनडीए में फिसलने का फायदा लोजपा नहीं उठा पाई।
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रामविलास के उत्तराधिकारी के सामने कई सवाल
दरअसल चिराग पासवान एनडीए से अलग होने की घोषणा तब की जब उनके बीमार पिता जिंदगी-मौत के बीच की लड़ाई में फंस गए थे। उस समय चिराग पासवान अलग राह अख्तियार करते हुए एनडीए में रहते हुए अभूतपूर्व फैसला किया। लेकिन उनके इस फैसले से पार्टी को कोई फायदा नहीं मिला। राजनीति में कभी मौसम वैज्ञानिक के तौर पर अपनी पहचान बना चुके दिवंगत कद्दावर नेता रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी और पुत्र चिराग पासवान के अति महात्वाकांक्षा ने पार्टी को कहां से कहां पहुंचा दिया।
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लोजपा से जब जदयू ने बनाई दूरी तो...
लोजपा को तब तगड़ा झटका लगा जब पार्टी के कई कद्दावर नेता अपने सैंकड़ों समर्थकों के साथ जदयू में शामिल हो गए। सवाल उठता है कि चिराग पासवान अपने पिता के निधन के बाद किसका मोहरा बन कर रह गये? इसका उत्तर ढूंढना आसान ही है। कहीं न कहीं शक की सूई बीजेपी की तरफ जाती है। रामविलास के निधन के बाद राजनीति में चिराग के परिपक्वता को लेकर सवाल उठने लगे है। उनके उस फैसले की काफी आलोचना हो रही है जिसमें उन्होंने जदयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े कर दिये।
चिराग की 'न माया मिली न राम' वाली स्थिति
यह सवाल उठना इसलिये लाजिमी है कि नाखुन कटा कर शहीद बनने का नाटक दिखाकर चिराग पासवान ने आखिर क्या हासिल किया? यह सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि लोजपा आज एनडीए में रहते हुए भी न तो केंद्र में और न ही बिहार में सत्ता का हिस्सा है। जिससे पार्टी के नेता से लेकर कार्यकर्ता तक निराश और हताश है। वक्त आ गया है कि चिराग पासवान पार्टी में जान फूंकने के लिये अहम कदम उठाये। ताकि अपने पिता के बनाये गए पार्टी को बरकरार रख सकें। लेकिन इतना साफ है कि जहां चिराग पासवान बिहार की जनता का भरोसा जीतने में नाकाम रहे तो पिता की अनुपस्थिति में तेजस्वी यादव ने अपने तेजस्व को साबित कर दिया।
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