नई दिल्ली/कुमार आलोक भास्कर। भारत (India) और चीन की दुश्मनी दशकों पुरानी जगजाहिर है। लेकिन इसके वाबजूद दोनों देश एक-दूसरे के बाजार में व्यापार और निवेश करते रहते है। लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति से दुनिया भी पूरी तरह बोखलाए हुए है। तो वहीं लद्दाख की सीमा पर भारतीय सेना के साथ आमने-सामने होने पर एक बार फिर चीनी सामानों की बहिष्कार शुरु हो गई है। लेकिन हर बार की तरह कागजी विरोध से आगे ठोस कार्रवाई की बेहद आवश्यकता है।
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भारत कागज पर विरोध करना करें बंद
लेकिन हकीकत कुछ और बयां करती है। जिससे लगता है कि यह विरोध भी कागजी और ज्यादा लंबा दिन नहीं चल सकता है। इसके पीछे की वजह को जानना जरुरी है। शायद ही देश में कोई घर और व्यक्ति होगा जो अपने जीवन काल में चीन के उत्पादों का प्रयोग न करता हो। यहां तक कि पीएम नरेंद्र मोदी ने शासन में आते ही 2014 में मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया का खूब प्रचार-प्रसार किया हो,लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहती है।
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पीएम के लिये आसान नहीं हैं फैसला
हालांकि फिर से पीएम मोदी ने कोरोना काल में देश को आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत स्वालंबी बनाने की बात जोर-शोर से शुरु की है। लेकिन चीन को गौण करके कैसे भारत यह रास्ता तय करेगा- इस पर बड़ी मासूमियत से केंद्र सरकार भी खामोश हो जाती है। आज भारत भले ही चाइना के वन बेल्ट एंड वन रोड प्रोजेक्ट का हिस्सा न हो,इसके लिये पाकिस्तान को लताड़ भी लगाता है। लेकिन वर्चुअल बेल्ट एंड रोड का हिस्सा भारत तो बन ही चुका है। हां इतना जरुर है कि पीएम नरेंद्र मोदी चाह कर भी चाइना के इस ताकतवर नेटवर्क को तोड़ने में कामयाब नहीं हो रहे है। तो इसके पीछे की वजह देश की केंद्र में रही पूर्ववर्ती सरकार ज्यादा जिम्मेदार है। लेकिन अगर चीन की मोनोपॉली तोड़ने में नरेंद्र मोदी सक्षम हुए तो इससे उनके कामयाबी के रास्ते में एक और मील का पत्थर जुड़ जाएगा। लेकिन भारत को अब चीनी लड़ियों-फुलझड़ियोंको जलाने से आगे भी विचार करना पड़ेगा। हालांकि यह रास्ता कठिन जरुर है। लेकिन मुमकिन नहीं है।
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