नई दिल्ली/ राधा शर्मा। माहवारी यानी पीरियड्स के वो कुछ दिन, जिनमें होने वाले दर्द और उनसे उपजी शर्म सिर्फ कानाफूसी सिसकियां चार दिवारी के अंदर ही दब के रह जया करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब ये कानाफूसी सिसकियों का नहीं बल्कि चर्चा का विषय बन चुका है। कई जगह इसकी बानगी भी देखी जा रही है।
पीरियड्स पर अभिव्यक्ति की इस बाढ़ को भारतीय नारीवाद के नए अध्याय के तौर पर देखा जा रहा है। ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या नारीवाद का यह नया अध्याय इस मुद्दे से जुड़ी सभी व्यावहारिक चिंताओं को सही तरह से सामने रख पा रहा है?
क्या भारत जैसे विकासशील देश में सैनिटरी पैड्स या पीरियड्स पर राजनीति करनी जायज है? क्या लोकतांत्रिक भारत में पीरियड्स के बारे में लड़कियों को शिक्षित करना इतना मुश्कल है। अगर आपका जवाब हां है तो क्यों?
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आखिर कब समझेगी सरकार औरतों के जरुरतों को...
हमारी जरूरत आप कैसे समझेंगे? अगर हमारी खामोशी से कोई समझ लेता कि हमें क्या चाहिये तो हमें आवाज उठाने की जरुरत ही नहीं पड़ती। लेकिन अक्सर हमें चुप रहना ही सिखाया जाता है। मासिक धर्म पर बात कौन करेगा। हमारे पारिवारिक ढांचे ने औरतों के मुंह पर मोटा ताला जड़ा हुआ है।
भीतर कानफोडू सन्नाटा हो लेकिन ऊपर से ऊफ भी न करना। तभी पिछले साल विमेन यू स्पीक नामक एक संस्था ने जब सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल पर औरतों से बातचीत की, तो 93 परसेंट ने कहा कि वे 30 रुपए के पैड्स की बजाय 30 रुपये का राशन खरीदना पसंद करेंगी। अब ऐसे बयानों से क्या नारी सम्मान पर प्रहार नहीं करती है।
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मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने यूनिवर्सिटीज, कॉलेजों और स्कूलों में भी सैनिटरी नैपकिन पैड्स मुहैया करवाने के निर्देश की जहां तक तारिफ की जायें कम है। लेकिन जीएसटी के दायरे सैनिटरी पैड्स को रखना क्या उचित समझा जा सकता है। बेशक, यह महिला विरोधी खबर ही थी।
माना कि सरकार औरतों के इस्तेमाल में होनी दाली चीजों को सस्ता करने पर तुली है। लेकिन सरकार यह सोचना होगा कि औरतों के लिये सबसे जरुरी चीज क्या है। अगर सिंदूर हमारे लिये जरूरी है तो पीरियड्स या सैनिटरी पैड्स पर बहस क्यों नहीं । अगर भारतीय संविधान की बात करें तो सभी को समानता का अधिकार दिया गया है।
लेकिन सही मायने में सिर्फ संविधान के किताब में ही है। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हमें बात करने के लिये आंदोलन करना पड़ता है।
माहवारी यानी पीरियड्स पर तोड़नी होगी चुप्पी...
पिछले एक-दो साल के दौरान स्त्रियों से जुड़े एक मुद्दे पर अचानक ही बहस तेज हुई है। यह मु्द्दा है माहवारी यानी पीरियड्स। भारत में यह पहली बार हो रहा है जब कॉलेज कैंपसों से लेकर समाचार माध्यमों और सोशल मीडिया तक तमाम मंचों पर पीरियड्स की इतनी चर्चा हो रही है। और होनी भी चाहिये । क्योंकि इस देश में औरतों पर बनने वाले सभी कानूनों को अमलीजामा पहनाने के लिये मरना पड़ता है।
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बता दें कि फिरोजाबाद में पीरियड्स के दौरान नायलॉन के ब्लाऊज का टुकड़ा इस्तेमाल करते हुए एक औरत इंफेक्शन से मर गई। ब्लाऊज में लगा हुक उसके शरीर को छलनी कर गया और उससे होने वाले इंफेक्शन ने उसकी जान ले ली।
दूसरी खबर यह है कि कुछ गरीब औरतें पीरियड्स के समय गोबर के उपलों को पैड्स के तौर पर इस्तेमाल करती हैं क्योंकि उनके पास सूती कपड़ों के चिथड़े नहीं होते। सैनिटरी पैड्स का विरोध प्रदर्शनों में प्रयोग भारत में पहले कभी नहीं हुआ। पीरियड्स को लेकर न सिर्फ गाने बनाए जा रहे हैं बल्कि हास्य पैदा करने के लिए भी इसे एक विषय के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है
यूपी क्यों हो रही है फेल...
एक तरफ जहां केन्द्र सरकार 'बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओं' के अभियान को आगे वढ़ाने के लिये प्रयास कर रही है वहीं उत्तर प्रदेश सरकार लड़कियों की शिक्षा के लिये बेहतर बनाने के दावें में फेल नजर आ रही है। स्कूलों में बच्चियों के ड्रॉप आउट रेट को कम करने की भी कोशिश में उत्तर प्रदेश सरकार फेल होती नजर आ रही है।
सरकारी स्कूलों में कक्षा 6 से 12वीं तक की बच्चियों को मुफ्त सैनिटरी पैड्स देने के लिये सरकार के पास बजट नहीं है। वैसे भी उत्तर प्रदेश के गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में आज भी पीरियड्स को वर्जित विषय की तरह लिया जाता है। ऐसे में सरकार के फेल होते दावें औरतों का क्या सम्मान करेगी।
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गौरतलब है कि यूनीसेफ के 2015 में हुए एक सर्वे के अनुसार अकेले उत्तर प्रदेश में 28 लाख लड़कियां टायलेट न होने के कारण पीरियड्स के दौरान स्कूल नहीं जातीं। बीते साल किशोरी स्वास्थ्य योजना के तहत शहर को 13 लाख रुपये का बजट आवंटित किया गया था। सरकारी स्कूलों में स्वास्थ्य विभाग ने सैनिटरी पैड्स तो खरीदकर बांट दिए, लेकिन शिक्षकों और छात्राओं को प्रशिक्षण के लिए कोई कवायद नहीं की।
केंद्र सरकार या राज्य सरकार को माहवारी यानी पीरियड्स के बारे में लड़कियों को शिक्षित करने की मुहिम को आगे बढ़ाने की जरुरत है। केवल पीरियड्स के मुद्दे पर संसद में चर्चाएं और सड़कों प्रदर्शन कर चटकारें लेनी वाली राजनीति से दुर ही रहना चाहिये।
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अब समय आ गया है कि विकासशील देशों में भी पीरियड्स के मुद्दे पर सरकार आमने -सामने बात कि जाये। साथ ही साथ यह भी सुनिश्चत किया जाये कि मुफ्त में सेनेटरी पैड मुहैया कराने से स्कूलों में लड़कियों की हाजिरी में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
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