नई दिल्ली/प्रियंका। सुशांत सिंह राजपुत के केस के बाद लोगों का ध्यान मानसिक स्वास्थ्य की तरफ गया है और लोगों ने जाना है कि मानसिक रूप से परेशान व्यक्ति को समझना और उसका ख्याल रखना कितना जरूरी है।
एक तरह से इस केस ने, लोगों को मजबूर कर दिया कि वो मानसिक स्वास्थ्य को जाने और इसको सुधारने के लिए क्या विकल्प मौजूद हैं उनपर बात करें। लेकिन क्या हमारे देश में मेंटल हेल्थ को लेकर इतने साधन मौजूद हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर उठी इस जागरूकता को सही दिशा दी जा सकती है, आइये एक नजर डालते हैं।
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नाकाफी सुविधाएं भारत में स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही नाकाफी हैं और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में हमारे सरकारी अस्पतालों में कोई बेसिक सुविधा भी मौजूद नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि सुशांत सिंह राजपूत मामले में सुप्रीम कोर्ट को भी मानसिक सेहत के इलाज के बारे में पूछना पड़ गया था। जानकारों की माने तो मानसिक स्वास्थ्य भारत में इतना महंगा है कि लोग इसे अवॉयड करना ही सही समझते हैं।
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सस्ते विकल्प देश की मेट्रो सिटीज़ में भी मेंटल हेल्थ के खर्चे वो लोग भी नहीं उठा पाते हैं जो अच्छा-खासा कमाते हैं। इसलिए ये लोग या तो योग और मेटिडेशन की तरफ मुड़ जाते हैं या ऑनलाइन मोटिवेशनल वीडियोज देखकर अपना काम चला लेते हैं। ये हालात इसलिए भी हैं क्योंकि हमारे देश में एक लाख लोगों पर एक मनोचिकित्सक भी नहीं है।
सरकारी अस्पतालों में तो इस तरह का कोई डिपार्टमेंट रखा ही नहीं गया और प्राइवेट अस्पतालों में इनके इलाज काफी महंगें हैं। इन महंगे इलाजों का खर्चा हर कोई नहीं उठा सकता इसलिए मेंटल हेल्थ को टालना ही एक लास्ट और सेफ ऑप्शन लोगों को समझ आता है।
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क्या कहते हैं आंकड़े इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि साल 2014-16 तक भारत में एक लाख लोगों की आबादी के लिए 0.8 मनोचिकित्सक मौजूद थे यानी एक से भी कम। जबकि मानक कहते हैं कि यह संख्या तीन से ज्यादा होनी चाहिए। लेकिन इस तरह हमारी सरकार बेहद उदासीन है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने भी इस बात को माना है कि देश में मानसिक स्वास्थ्य के लिए अस्पतालों की संख्या और डॉक्टरों की भारी कमी है।
वहीँ, इंडियन जर्नल ऑफ़ सायकाइट्री की 2019 की रिपोर्ट भी यही बताती है कि सरकार ने देश के बजट का 1% से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के लिए रखा है। विडंबना यह है कि इन सभी खामियों और असुविधाओं के बाद भी देश में सरकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए निवेश करने को तैयार नहीं दिखाई देती।
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मेडिकल इंश्योरेंस कवर हालांकि सुशांत केस के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने मेंटल हेल्थ को लेकर चिंता जताई और पूछा था कि आखिर क्यों इंश्योरेंस कंपनियां मानसिक सेहत के इलाज के ख़र्च को मेडिकल इंश्योरेंस कवर के तहत नहीं रखती हैं? इसके बाद ही इंश्योरेंस रेग्युलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (IRDAI) ने अपनी गाइडलाइन्स में साफ कर दिया कि बीमा कंपनियों के लिए मानसिक बीमारियों को कवर करना अनिवार्य होगा। लेकिन फिर भी सवाल वही है कि इसमें हर वर्ग शामिल होगा या नहीं? और जवाब है नहीं। क्योंकि जब पैसा नहीं तो कुछ भी नहीं।
इस साल निवेश पर जोर हर साल 10 अक्टूबर को मनाया जाने वाला मानसिक स्वास्थ्य दिवस हर बार एक अलग थीम पर सेलिब्रेट किया जाता है जिससे इसके हर एक पहलू पर काम किया जा सके। इस बार विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘मेंटल हेल्थ फ़ॉर ऑल: ग्रेटर एक्सेस, ग्रेटर इन्वेस्टमेंट’ (Mental Health for All: Greater Access, Greater Investment ) थीम रखी है ताकि मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में अधिक निवेश किया जाए और ये सेवाएं अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाई जाएं।
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