नई दिल्ली/ टीम डिजिटल। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंसात्मक झड़प कोई नई घटना नहीं है किंतु विषय है कि आखिर क्यों ये प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान वामपंथी कुंठित मानसिकताओं के प्रोपगेंडों के क्रियान्वयन का क्षेत्र बना हुआ है ? क्यों ये हिन्दू त्योहारों के दिनों को ही अपना निशाना बनाते हैं ? जबकि रमजान के महीने में नियमित नमाज की सेंट्रल लाइब्रेरी में और इफ्तार की व्यवस्था मेस में चल रही है,लेकिन जब दुर्गा पूजा भी विधिवत चला तो क्यों ये अपनी सहिष्णुता खो दिए ? छद्म पंथनिरपेक्षता के समर्थक होने के स्वांग को क्यों रचते हैं ? क्यों विश्वविद्यालय परिसर के शांति-सह- सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को बर्दाश्त नहीं कर पाते ?
इस वर्ष रामनवमी के दिन JNU कैंपस के होस्टल में हर वर्ष की भांति ही पूजा का आयोजन किया गया। और पूजा में विध्न डालने के नियत से तैयार वामपंथी छात्र संगठन के विद्यार्थियों ने अड़चन शुरू की जिसके कारण 3 बजे शुरू होने वाली पूजा शाम 5 बजे शुरू हो सकी। बाहर पवित्र पूजा और मेस के अंदर पाक रमजान का इफ्तार शांति से शुरू हुआ जिसे वामी छात्र बर्दास्त ना कर सके और पूजा कर बाहर निकल रहे सामान्य छात्र- छात्राओं के साथ- साथ दिव्यांग विद्यार्थी भी शामिल थे उनपर डंडे , कांच की बोतलें और पत्थरों से हमला किया गया।
सबसे मजे की बात ये कि जेएनयू के बाहर की दुनिया को बताने के लिए नैरेटिव कुछ और गढ़ लिया गया और बताया गया कि हिंदुवादी संगठन से जुड़े छात्र रामनवमी के दिन चिकन खाने से मना कर रहे थे और इसे नहीं मानने पर मारपीट और हिंसा पर वे उतर आए। जबकि हकीकत यह है कि उस दिन आम सहमति से सिर्फ एक हॉस्टल में चिकन नहीं बनाने का फैसला लिया गया था क्योंकि उसीमें रामनवमी की पूजा का कार्यक्रम रखा गया था। जेएनयू के बाकी सभी हॉस्टल्स में उस दिन डिनर में नॉनवेज बना था।
ये तो सिर्फ नैरेटिव था, अभी प्रोपेगेंडा तो बाकी ही है- छात्र समुदाय को लहूलुहान करने के बाद शांति मार्च, मीडिया में बयानबाज़ी इत्यादि का सिलसिला चलाया गया जो कि कोई नई तरकीब नहीं है। ऐसा अक्सर देखा गया है की किसी भी पूजा या त्योहार के दिन ही वामपंथी संगठन की हिंसात्मक झड़प की घटना सामने आती है। और फिर खुद ही मातम भी मनाते हैं। ये तो बात हो गई कि इस विचार विशेष के लोगों को "खुद बस्ती भी जलाना है फिर मातम भी मनाना है।"
साक्ष्यों के तौर पर देखें तो कई ऐसे वीडियो है जिनमें छात्रों पर पत्थर फेंकते, किसी छात्र का गला दबाते और कहीं डंडा चलाते हुए ये लोग दिखे हैं और ये चेहरे वामपंथी संगठन के कार्यकर्ताओं के हैं। कुछ विरोधाभासी फोटोज भी हैं जिनमें दो छात्राएं दिख रहीं हैं एक चोटिल है और दूसरी उसको सान्त्वना दे रही है, दूसरी फोटो में छात्राएं वहीं हैं, लेकिन चोटिल छात्रा को इसमें स्वस्थ व पिछले फ़ोटो में सांत्वना देती दिख रही छात्रा को बेहोश दिखाया गया है। ऐसा कैसे संभव हो सका ? ये विचारणीय है और स्पष्ट रूप से वामी प्रोपेगेंडा और विक्टिम कार्ड के खेल को इंगित करता है।
अब रही बात शाकाहार- मांसाहार के दृष्टिकोण को प्रचारित करने की तो ये भी कोई नई बात नहीं है। जब भी कभी ये अराजक तत्व अपने ही गुत्थी में उलझ जाते हैं तो ऐसे बेबुनियाद हथकंडे अपनाते हैं। इस बार भी ऐसा हुआ क्योंकि भोजन मेनू और साथ ही रामनवमी के दिन पेरियार और कोयना इत्यादि होस्टल्स में मांसाहार का पड़ोसा जाना और सुबह के नाश्ते में अंडा का भी होना ये समझने के लिए पर्याप्त है कि भोजन का विषय बनाना एक नाकाम बहाना मात्र है और कुछ नहीं। विषय इतना सा है कि मांस तो लगभग प्रत्येक होस्टल के मेस में बना और परोसा गया था तो हंगामा केवल कावेरी में ही क्यूं?
कुल मिला कर देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि वामपंथ अपने सिमटते हुए वैचारिक परिधि को नई पीढ़ी के छात्रों द्वारा दुत्कार दिए जाने से बौखला सा गया है और इसीलिए अपनी सियासी महत्वकांक्षाओं के पूर्ति हेतु ऐसी निंदनीय कुकृत्यों को अंजाम दे रहा है। इसका प्रसार जब मीडिया और सोशल मीडिया पर इन्हीं की विचारधारा के तथाकथित पत्रकार बने लोग मिर्च- मसालों के साथ करते हैं तो इसका प्रभाव केवल विश्वविद्यालय परिसर तक ना रह कर ये भविष्य को प्रभावित करती हुई दूर दराज के ग्रामीण परिवेश के उन अभिभावकों पर भी होता है जो अपने बच्चों को जेएनयू जैसी प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाने का सपना संजो रहे होते हैं।
मारपीट,अंगभंग कर देना,जान से मारने की नियत से हमला करना,आम छात्रों पर नामजद मुकदमें इत्यादि जब एक अभिभावक समाचार में देखता है तो वह अपने बच्चे को केंद्र में रख कर सोचते है और निष्कर्ष ये होता है कि "रहेगा तो पढ़ेगा" इसीलिए कोई भी आस- पास के विश्वविद्यालयों में नामांकन करा दो ताकि डिग्री हो जाए। और ऐसे विद्यार्थी को सही प्लेटफॉर्म नहीं मिलने के कारण उसकी प्रतिभा मारी जाती है।
ये सही है कि जेएनयू में पढ़ने आये सभी स्टूडेंट का धेय्य राजनीति करना तो नहीं होता है।और ग्रामीण समाज से आये छात्र-छात्राएं चाहे वो जिस भी जाती, धर्म, रंग,और समुदाय के हों उनका एक ही ध्येय होता है- पढ़कर सामाजिक,आर्थिक व शैक्षणिक क्षेत्र में एक मुकाम पाना। लेकिन ये वामी संगठन निश्छल व मासूम छात्रों को डूड कल्चर और आधुनिकता के नाम पर बरगला कर, ब्रेनवॉश कर उनको दिग्भ्रमित कर अपने संगठन से जोड़ते हैं। पढ़ाई करने आया छात्र कब लाल- गुलाम बन कर रह जाता है,उसको भी पता नहीं चलता और वह एक अराजक तत्व में परिणत हो जाता है।
इन सब विषयों पर तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों की आवाज गुम जाती है और सबकी तख्तियां ,सोशल मीडिया हैंडल्स काम नहीं करता, संपूर्ण मौन छाया रहता है। यदि यही स्थिति विपरीत होती तो 'हाय- हाय' से पूरे देश में कोलाहल मचा रहता।
चूंकि जेएनयू देश की राजधानी दिल्ली में है इसलिए यहां होने वाली ऐसी घटनाएं भले ही मीडिया में बहस का विषय नहीं बन पाती लेकिन चर्चा में जरूर आ जाती हैं। जबकि वामपंथी विचारधारा के एजेंडे के तहत इस तरह की संस्कृति और राष्ट्र विरोधी अत्याचार देश के अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी धड़ल्ले से किया जाता है।
इस तरह की घटनाएं राष्ट्र को निरन्तर खोखला करती जा रही हैं क्योंकि विश्वविद्यालय का अच्छा माहौल नहीं होने से शिक्षा की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर होगा और खराब माहौल होने के कारण प्रतिभावान विद्यार्थीगण नामांकन कराने से भयभीत होते हैं। कुल मिलाकर सकारात्मक, प्रगतिशील व तार्किक वैचारिक विरोध लोकतंत्र की खूबसूरती है और सशक्त व मजबूत लोकतंत्र के बने रहने के लिए वैचारिक विमर्श अपरिहार्य है किंतु इसमें हिंसा व असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।
गुंजा सिंह (छात्रा, दिल्ली विश्वविद्यालय)
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