नई दिल्ली/नवोदय टाइम्स (शेषमणि शुक्ल)। बिहार विधानसभा समेत 11 राज्यों के उपचुनावों से कांग्रेस को एक सबक ले लेना चाहिए। संगठन में बहुत ताकत होती है। अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। भाजपा से न सही, वाम दलों से ही कुछ सीख ले, जिनके नेताओं ने बिहार चुनाव में एकजुट होकर प्रचार किया और 15 सीटों पर जीत हासिल कर ली। अपना वजूद बचाए रखना है तो कांग्रेस जितनी जल्दी संगठन की शक्ति को पहचान ले, उसके लिए उतना ही बेहतर है।
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चुनावों में टीम के साथ उतरने की जरूरत बिहार विधानसभा चुनाव और 54 सीटों पर हुए उपचुनावों ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि कांग्रेस का क्या अब कुछ नहीं हो सकता? इसके साथ ही पार्टी के नेतृत्व पर भी सवाल उठना लाजमी है। बिहार हो या बाकी उपचुनाव में कहीं भी कांग्रेस नेतृत्व अपनी छाप छोड़ते नहीं दिखते। गुजरात में अपनी सभी आठों सीटें हार गई। मध्य प्रदेश में 28 में से केलव 8 सीटें वापस हाथ लगीं। उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली, बल्कि कई सीटों पर जमानत तक जब्त हो गई। बाकी राज्यों में भी कांग्रेस को कुछ हासिल नहीं हुआ। बिहार हो या फिर बाकी उपचुनाव, पार्टी कहीं भी लड़ती-जूझती नजर ही नहीं आई। न नेता दिखे न संगठन। ज्यादातर राज्यों में तो संगठन निष्क्रिय है या फिर आपसी खींचतान और गुटबाजी का शिकार है। इसके उलट, बाकी दल पूरे चुनाव में जूझते दिखे।
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पार्टी संगठन की क्षमता को भूल कर किसी चमत्कार की अभिलाषा में चलती जा रही है। उसे लगता है कि आम जनता खुद ब खुद उसकी ओर खिंची चली आएगी। वह यह भूल जाती है कि हर चुनाव में करीब 25 से 30 फीसद नया मतदाता होता है, जिसे न कांग्रेस की न नीतियों की न ही उसके पूर्व के कार्यों की ज्यादा जानकारी होती है। ऐसे मतदाताओं को पार्टी की रीति-नीति बताने वाले वक्ता, नेता, कार्यकर्ता और कुशल सक्रिय नेतृत्व, अच्छे संगठक चाहिए। बिहार चुनाव का ही ताजा नजीर लें।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद 12 चुनावी रैलियों को संबोधित किया और भाजपा के शीर्ष नेताओं समेत तमाम केंद्रीय मंत्रियों ने सीटवार मोर्चा संभाले रखा। मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने 160 सभाएं की। वहीं वामदलों के नेता दीपंकर भट्टाचार्य से लेकर सीताराम येचुरी तक दर्जनों नेताओं ने जमकर रैलियां-सभाएं की। राजद प्रमुख तेजस्वी यादव ने अकेले 247 रैली-सभाएं की। लेकिन कांग्रेस की ओर से स्टार प्रचारक के नाम पर केवल राहुल गांधी दिखे, जिन्होंने पूरे चुनाव में केवल 8 सभाएं की। दूसरे रणदीप सुरजेवाला, जिनकी करीब 20 सभाएं हुईं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जरूर बिहार चुनाव में गए, लेकिन पार्टी का अन्य कोई शीर्ष नेता कहीं नजर नहीं आया। राज्य में संगठन के नाम पर तो प्रदेश अध्यक्ष के सिवा कुछ है ही नहीं।
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चुनाव के परिणाम ही बता रहे हैं कि जिसने जितनी मेहनत की, उसके मुताबिक उसे फल मिला। महागठबंधन में सबसे खराब स्थिति कांग्रेस की रही। 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, 19 सीटें मिलीं। स्ट्राइक रेट 27.14 फीसद रहा। जबकि सहयोगी पार्टी आरजेडी का स्ट्राइक रेट 52.08 रहा। 144 सीटों में से 75 पर जीत दर्ज की। वहीं वाम दलों का स्ट्राइक रेट 55.17 फीसद रहा। 29 में से 16 सीटें जीती है। बात एनडीए की करें तो भाजपा ने अपने हिस्से की 110 सीटों में से 74 पर जीत दर्ज की है। इसकी स्ट्राइक रेट 67.27 रहा। वहीं जेडीयू ने 115 में से 43 सीटों पर जीत दर्ज की है। इसका स्ट्राइक रेट 37.39 रहा। उपचुनावों के परिणाम भी यही बताते हैं कि मेहनत के मुताबिक ही फल मिलता है।
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