नई दिल्ली/टीम डिजिटल। केंद्र सरकार के लाए गए तीन नए कृषि बिलों (Farm Bill) को लेकर किसानों का हुजूम सड़कों पर उतरा हुआ है। हालांकि किसानों से केंद्र की बातचीत चल रही है लेकिन अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। किसानों ने नए कृषि कानूनों को लेकर सबसे ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी प्रणाली खत्म हो जाने को लेकर अपना आंदोलन शुरू किया था।
लेकिन शायद आप यह नहीं जानते होंगे कि वास्तव में जिस एमएसपी प्रणाली की बात किसान कर रहे हैं वो असल में उसका सही फायदा नहीं उठा पाते हैं और ये प्रणाली अब तक किसी कानून का हिस्सा भी नहीं रही है।
खासकर अगर हम पंजाब की बात करें तो खुद पंजाब के किसानों को ही इस साल ही सबसे ज्यादा एमएसपी का लाभ मिला है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस एमएसपी को लेकर वो आज सड़कों पर हैं उसका इस्तेमाल सिर्फ छह फीसद बड़े किसान ही ले पाते है।
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ऐसे तय होता है न्यूनतम समर्थन मूल्य बता दें कि केंद्र सरकार ले विभाग कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों पर ही न्यूनतम मूल्य तय किया जाता है। फिलहाल 23 प्रकार की जिंसों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सीएसीपी तय करती है। इनमें 7 अनाज, 5 दलहन, 7 तिलहन व 4 नकदी फसलें शामिल हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि सीएसीपी ही संसद से मान्यता प्राप्त वैधानिक निकाय नहीं है। एमएसपी की घोषणा करने की शुरुआत वर्ष 1965 में हरित क्रांति के समय की गई थी। वर्ष 1966-67 में सबसे पहले गेहूं की खरीद से इसकी शुरुआत हुई थी।
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मंडियों के खत्म होने का है डर किसानों को डर है कि सरकार नए कानून की आड़ में एमएसपी को धीरे-धीरे खत्म कर देगी। इस कारण मंडियों को ताकत देने वाला एपीएमसी (APMC) एक्ट कमजोर पड़ जाएगा और जब ऐसा होने लगेगा तो एमएसपी की गारंटी भी खत्म हो जाएगी। इसके कमजोर पड़ने से सीधा नुकसान किसानों को भविष्य में उठाना पड़ेगा। इस वजह से किसानों की मांग है कि एमसीपी (MSP) को कानून का हिस्सा बनाया जाए।
साथ ही किसानों को डर है कि अगर मंडी के बाहर भी खुले तौर पर फसल खरीदने और बेचने की छूट हो जाएगी तो मंडिया कमजोर पड़ जाएंगी और फिर आगे जाकर उन्हें मंडी बंद करनी पड़ेगी। किसान मानते हैं कि मंडियों का मजबूत होना बेहद जरूरी है क्योंकि तभी वो आड़तियों को फसल बेचकर पैसे कमा लेते हैं लेकिन कॉरपोरेट के साथ ऐसे रिश्ते नहीं बन पाएंगे।
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