आशुतोष त्रिपाठी। यत्र योगेश्वर कृष्णो तत्र श्री: विजयो: इसका अर्थ है कि जहां योगेश्वर कृष्ण हैं, वहीं श्री है और विजय भी। यह स्थल तो मथुरा, वृंदावन और गोवर्धन के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। इन पवित्र धामों का नाम मात्र लेने से आत्मा पवित्र हो जाती है। एक सुखद अहसास मन के भीतर अध्यात्मिकता के तारों को झंकृत कर देता है। तन-मन भगवान श्रीकृष्ण के अनुराग में सराबोर हो जाता है। मथुरा जहां पर कन्हैया का जन्म हुआ, वृंदावन जहां वह गोपियों के साथ रास रचाया करते थे। गोवर्धन पर्वत क्षेत्र जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान नित्य विहार और वास किया करते थे। यह गिरिराज गोवर्धन परम पावन और मनोरथ पूर्ण करने वाली स्थली है। यह अलौकिक आराध्यस्थल श्रीकृष्ण और उनकी अधिष्ठात्री ‘श्री’ का नित्ययुग्म वास है। अत्यन्त प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसंधान से प्रमाणित होता है कि गोवर्धन पर्वत का भी अवतार हुआ था।
‘गोवार्धनाद अदूरेण वृन्दारण्ये सखी स्थले कुसुमाम्भोधौ: वृषभानु सुता कान्त विहारे कीर्तिन: श्रिय:’ इससे स्पष्ट है कि श्री और भगवान श्रीकृष्ण का नित्य विहार वास स्थल श्रीगोवर्धन है। साधकों के लिए यह परम साध्य और मनोवांछित फल देने वाला है। इस महात्म्य के कारण गोवर्धन पर्वत के समीप गोवर्धन श्रीपीठम् की स्थापना का संकल्प परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती महाराज ने लिया। पवित्र गोवर्धन पर्वत के महात्म्य का प्रकाश चारों तरफ फैलाने के उद्देश्य से स्थापित यह पीठ अब आस्थावानों के लिए पावन केंद्र बन गई है।
आदि शंकराचार्य को यहीं हुए थे बाल गोपाल के दर्शन गोर्वधन की पावन स्थली पर जगद्गुरु आदि शंकराचार्य महाराज ने 16 वर्ष की आयु में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा की थी। उसी समय श्रीकृष्ण भगवान ने उनको अपने बाल स्वरूप में बाल ग्वालों के साथ दर्शन दिए थे।
श्रीकृष्ण ने छोटी अंगुली पर उठाया था गोवर्धन मथुरा से करीब 22 किमी दूर स्थित गोवर्धन पर्वत यानी गिरिराज को साक्षात श्रीकृष्ण भगवान का रूप माना जाता है। द्वापर युग में भगवान इंद्र के कोप से बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने बाएं हाथ की कानी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को 7 दिनों तक उठाकर रखा था। इस पर्वत के नीचे ब्रजवासी आ गए थे, जिससे वह भारी बरसात से बच गए। गिरिराज गोर्वधन को श्रीकृष्ण के रूप में मान्यता मिली है और करीब सात कोस (22 किमी) की परिक्रमा करने की पंरपरा यहां प्राचीन काल से चली आ रही है।
स्वामी ज्ञानानंद को मिली श्रीकृष्ण चरण चिह्न शिला, स्थापित की पीठ ग्रंथों में विवरण मिलता रहा है कि गोवर्धन पर्वत पर ऐसी शिलाएं मिलती हैं, जिन पर श्रीकृष्ण के चरण चिह्न विभूषित होते हैं। परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती महाराज गोवर्धन प्रवास पर थे। यहां पर रात्रिकालीन पूजन में वह श्रीकृष्ण भगवान का ध्यान लगाए थे, उसी में उनको श्रीचरण विभूषित शिला के दर्शन हुए। प्रात:काल वह शिला का ध्यान करते हुए गोवर्धन पर्वत पर गए और जो कुछ ध्यान में दिखा था, उसी के साक्षात दर्शन हुए और भगवान श्रीकृष्ण के ऊध्र्वगामी (ऊपर जाने वाले निशन) चरण चिह्नों वाली शिला स्वामी ज्ञानानंद को प्राप्त हुई।
वन विभाग के सहयोग से उन्होंने शिला को सुरक्षित रखवाया। संत महात्माओं, राजनीतिक विभूतियों से चर्चा करने के बाद उन्होंने गोवर्धन श्रीपीठम् स्थापित करने का निर्णय लिया। सभी के सहयोग से 11 अक्टूबर, 2006 में श्रीचरण विभूषित शिला को श्रीपीठ मंदिर में स्थापित और प्राण प्रतिष्ठित किया गया। गोवर्धन श्रीपीठम् भव्य मंदिर में भक्त विशेष रूप से दर्शन करने पहुंचते हैं।
मऊ, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण परिवार में जन्मे महाराजश्री ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नात्तकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद वह अयोध्या परिक्रमा पर निकले। इसी क्रम में वह बद्रिकाश्रम में परमहंस स्वामी आश्रमानन्द सरस्वती महाराज से दीक्षा लेकर विधिवत दंडी स्वामी हुए। बद्रिकाश्रम से पैदल हिमसेतु यात्रा प्रारम्भ की और 1095 दिनों में इसे पूरा करके उत्तर से दक्षिण तक संपूर्ण भारत का भ्रमण एवं गहन अध्ययन किया। श्रीमद् आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम्, काशी के अध्यक्ष के रूप में महाराजश्री पुराणों, उपनिषद, वेद आदि का शोध कार्य निरंतर करते आ रहे हैं।
इसके साथ मानव कल्याण के लिए संकल्पित स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती पीठों की स्थापना कर रहे हैं। गोवर्धन श्रीपीठम् की स्थापना के साथ उन्होने विंध्याचल धाम में श्रीकृष्ण योगमाया शक्ति पीठ की स्थापना की है। श्रीकृष्ण भगवान की बहन योगमाया, जिसको कंस ने देवकी की संतान समझकर मारना चाहा था, वह वहां से उडक़र विंध्याचल धाम चली गई थीं।
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