सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्थाएं सुगम तथा प्रभावशाली होनी चाहिएं। इन दोनों विशेषताओं पर मेरा ध्यान केन्द्रित रहेगा। ये दोनों व्यवस्थाएं सत्य के आभास के बिना अधूरी मानी जाएंगी। अब बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवाद पर हाल ही में आए निर्णयों पर यह किस हद तक लागू होती है, हमें यह देखना है। पैरा संख्या 796 में कोर्ट ने बताया है कि कैसे इस फैसले को दिया गया है। यह विवाद अचल सम्पत्ति के ऊपर है। कोर्ट ने अपना फैसला धर्म तथा विश्वास के आधार पर नहीं दिया बल्कि साक्ष्यों के आधार पर दिया। हम उन साक्ष्यों पर नजर दौड़ाएंगे और यह पूछेंगे कि क्या ये जकडऩे वाले या फिर अखंडनीय हैं। कोर्ट ने स्वीकार किया है कि ङ्क्षहदुओं तथा मुसलमानों ने 1857 के बाद पूजा का साक्ष्य प्रस्तुत किया है। उससे पहले के समय के बारे में कोर्ट ने कहा है कि प्रधानता की सम्भावनाएं हैं। ऐसा साक्ष्य है कि वहां पर ङ्क्षहदू भीतरी ढांचे में पूजा करते आए हैं। ऐसा मुसलमानों के मामले में दिखाई नहीं देता। उनके पास मस्जिद के निर्माण से लेकर 1856-57 के बीच नमाज पढऩे का लेखा-जोखा नहीं है और न ही उस समय मस्जिद में नमाज अदा करने का कोई साक्ष्य मिलता है। कहां से उपजा विवाद मेरे लिहाज से विवाद की शुरूआत यहीं से होती है। नमाज अदा करने के कोई साक्ष्य न होने के दावे को लेकर कोर्ट ने माना कि 450 वर्षों से एक मस्जिद मौजूद थी। इसलिए यदि यह मस्जिद नहीं थी तो फिर वहां नमाज अदा नहीं की जाती थी? और यदि 1528 तथा 1857 के बीच का साक्ष्य नहीं है तो कोर्ट के अनुसार यह दावा करना दर्शाता है कि मस्जिद का 325 वर्षों तक अनुपयोग हुआ तथा यह मृत थी। और यदि यह लागू होता है तो फिर यह मान लिया जाए कि कोर्ट के अनुसार मस्जिद का इस्तेमाल 1857 के बाद इस्लाम की पूजा के लिए किया जाता था। मगर इन सवालों के जवाब नहीं दिए गए। इसके आगे एक और मामला है। कोर्ट ने माना है कि 1856-57 में मस्जिद में पूजा के अधिकार को लेकर हिंदू-मुसलमानोंं में दंगे भड़के। इसके नतीजे में ब्रिटिश शासन ने दोनों धर्मों के लिए अलग से स्थान निर्धारित कर एक रेङ्क्षलग बना डाली। मगर ऐसा कोई साक्ष्य नहीं कि मुसलमान 1857 से लेकर यहां पर नमाज अदा कर रहे थे? यूरोपियन पर्यटकों के साक्ष्य अब सुप्रीम कोर्ट 1857 से लेकर मस्जिद में हिंदुओं द्वारा की जाने वाली पूजा के साक्ष्यों के लिए 18वीं शताब्दी के यूरोपियन पर्यटकों जैसे कि जोसफ टीफेनथेलर, विलियम ङ्क्षफच तथा मोंट गोमरी माॢटन के लेखन पर निर्भर करती है। इन लेखकों के हिसाब से मस्जिद का जिक्र होता है मगर यह नहीं सुझाया जाता कि यह मस्जिद का अनुपयोग हुआ या फिर यह मृत की तरह दिखने वाली थी। यकीनी तौर पर ऐसे संदर्भ जो ङ्क्षहदुओं के लिए साक्ष्य तो प्रस्तुत करते ही हैं, साथ ही मुसलमानों के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। फिर भी कोर्ट ने यह देखते हुए अपनी आंखें मूंद लीं। कट्टर औरंगजेब क्या हिन्दुओं को पूजा का अधिकार देता अब इस संदर्भ में मैं एक अलग स्तर पर अपना तर्क देता हूं। जैसा कि कोर्ट दावा करती है कि साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लिए गए। मुझे इस तथ्य से ङ्क्षचता हुई कि इतिहास के पन्नों से कुछ उड़ा दिया गया। कोर्ट कहती है कि मुसलमानों ने ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जो यह बताता हो कि मस्जिद के 16वीं शताब्दी में निर्माण की तारीख से लेकर1857 तक भीतरी ढांचे पर वे अपना एकमात्र अधिकार रखते थे। जब 1528 में मस्जिद का निर्माण हुआ, बाबर ने भारत को जीता तथा मुसलमानों ने श्रद्धा दिखाई। उसके बाद 1658 से 1707 तक औरंगजेब भारत का शासक था और एक कट्टर मुसलमान था। इससे हम यह स्वीकार कर लें कि वह कट्टर होने के नाते ङ्क्षहदुओं को मस्जिद में पूजा करने का हक देता? जबकि मस्जिद तो बाबर के नाम पर ही रखी गई थी और तब मुसलमानों का ही इस मस्जिद पर कब्जा यकीनी बनाया गया था। यदि कोर्ट इस बात पर चलती है कि हम मान लें कि मस्जिद के निर्माण से लेकर 1857 तक भीतरी ढांचे का कब्जा विशेष तौर पर मुसलमानों के पास नहीं था तब इतिहास के साथ यह टकराने वाली बात हो जाएगी। पैरा 800 के अंत में निष्कर्ष के दौरान सम्भावनाओं का संतुलन रखते हुए साक्ष्य के संदर्भ में पूरे विवादित स्थल का ङ्क्षहदुओं का दावा मुसलमानों द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्य से बेहतर माना जा सकता है। यह स्पष्ट दिखाई देता है कि दोनों पक्षों के पास अपने दावों को लेकर साक्ष्य थे। मगर सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ङ्क्षहदुओं का साक्ष्य बेहतर है। इस स्थल को दो पक्षों में बांटने की बजाय ङ्क्षहदुओं को इसे दे दिया गया।
अब मैं यह मानता हूं कि सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्थाओं के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए न तो मैं वकील हूं, न ही एक विशेषज्ञ। मगर भारतीय नागरिक होने के नाते मैं इस मामले को परेशान करने वाला बताता हूं तथा आप लोग इस अयोध्या मामले में दी गई व्यवस्था को ठोस तथा सुगम मानते हैं क्योंकि यह कहा गया है कि यह साक्ष्य पर आधारित फैसला है। मगर कुछ हद तक उचित शंका से परे भी है। -करण थापर
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