नई दिल्ली/कुमार आलोक भास्कर। दिल्ली में दंगा को हुए अब लगभग 10 महीने बीत चुके है। फिर से जिंदगी पटरियों पर दौड़ती नजर आ रही है। अभी हाल ही में जब मैं दिल्ली दंगा के केंद्र जाफराबाद,यमुना विहार और चांदबाग पहुंचा तो चारों तरफ रौनकता ही रौनकता दिखी। अचानक से मेरे जेहन में वो तस्वीर कोंधने लगी जब ठीक दंगे के दौरान इसी क्षेत्र का जायजा लेने पहुंचा तो चारों तरफ सन्नाटा पसरा था।
क्या दिल्ली दंगाईयों का शहर है... चारों तरफ यहां जहर ही जहर है?
चप्पे-चप्पे पर था पुलिस का पहरा फिर भी...
हालांकि उस समय तक दंगे पर पूरी तरह काबू पा लिया गया था। पुलिस और फोर्स के जवान रिंग रोड से लेकर गली-गली तक सख्त पहरा दे रही थी। लेकिन अगर नदारद थी- वो थी लोगों की चहल-पहल। घरों में सहमें डरे लोग पुलिस के चप्पे-चप्पे पर उपस्थित रहने के वाबजूद बाहर नहीं निकल रहे थे। मानो उनके पैरों में जंजीर लग चुका है। उन्हें पता नहीं कि यदि वे अपने घर से बाहर निकले तो अगले पल वापस सही-सलामत वापस आ पाएंगे या नहीं। यह डर इधर भी था,और उधर भी था। हो भी क्यों न- उनके चहेते,किसी के दिल के टुकड़े को उन्मादी भीड़ ने महज कुछ मिनटों में ही टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। यह दर्द न तो कोई बांट सकता और न ही बोझ कोई अपने कंधों पर उठा सकता।
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कभी इन्हीं गलियों में इंसानियत हुई थी शर्मसार
तो फिर यह दंगा भड़काये गए क्यों? किसके इशारे पर चकाचौंध से भरी दिल्ली में इंसानियत को शर्मसार किया गया? आखिर कौन है जिम्मेदार? इन सवालों के जवाब ढ़ूढ़ने आसान नहीं है। दिल्ली के उत्तर-पूर्वी जिला में दंगा 24 फरवरी से लेकर अगले 3 दिनों तक नंगा नाच होता रहा। यह दंगा L Shape में हुई। जो 8 किमी तक फैली हुई थी। यानी खजूरी,भजनपुरा से शुरु होकर जाफराबाद तक के बीच के सभी कॉलनियों में बस नफरत ही नफरत...,धुंआ ही धुंआ... था। जिसे शब्दों में बयान करना भी बेहद कष्टदायक है।
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ताकतवर नेताओं की खुल गई पोल
अफसोस सिर्फ इतना ही है कि देश की राजधानी जो इस बात पर इठलाती और इतराती है कि उसके दिल में पावर का पावरहाउस मौजूद है। जो दिल्ली ही नहीं पूरे देश पर नजर रखती है और राज करती है। सबकुछ बेपर्दा हो गया। एक दाग जो दिल्ली के माथे पर लगा वो यहां मौजूद सभी ताकतवर नेताओं को बौना साबित कर दिया। फिर वो देश के ताकतवर पीएम नरेंद्र मोदी हो या फिर गृह मंत्री अमित शाह हो या दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ही क्यों न हो।
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बच नहीं सकते वो जिम्मेदारी से...
अगर दिल्ली झुलसती रही...तड़पती रही... तो पहली अगर किसी की जिम्मेदारी बनती है तो वो यहीं तीनों श्रीमानों की बनती है। आप कितने भी अगर-मगर कर लें, अपनी पीठ थपथपा ले- मोदी-शाह-केजरीवाल को कटघरे में खड़ा होने से कोई नहीं बचा सकता। दिल्ली में हुए दंगे को समय रहते नहीं संभाल पाने की पहली गाज अगर किसी पर गिरेगी तो उससे भी देश के पीएम,गृह मंत्री,दिल्ली के सीएम नहीं बच सकते।
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बेबस थी दिल्ली की जनता
दिल्ली की जनता की निगाहें आपको बेबस आंखों से ढ़ूढ़ती रही तो आप अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत में रेड कारपेट बिछाने में व्यस्त थे। तो वहीं धरना कुमार के नाम से प्रसिद्ध अरविंद केजरीवाल इतनी जहमत नहीं उठा पाए कि वे आग की लपटों को बुझाने के लिये खुद दोनों धर्मों और समाज के बीच पहुंचकर उसके धुएं को रोकते। वे बजाये इसके राजघाट पर फिर से नौटंकी करने जरुर बैठ गए।
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दंगा ने छोड़े कई सवाल
खैर, इस पर संतोष किया जा सकता कि दिल्ली की जनता ने फिर से हिम्मत दिखाई, अपनी गली में ही रहने वाले जुम्मन चाचा और संतोष भैया के बीच की दूरी खुद से पाटने की भरसक कोशिश की,फिर सफलता के झंडे भी गाड़े। जिसकी जोरदार तालियों से स्वागत किया जाना चाहिये। उन्होंने किसी भी राजनीतिक दलों या सामाजिक संगठनों पर भरोसा नहीं जताया कारण उन्हें पता था कि अगर वे बीच में आए तो फिर से खड़ा करेंगे शाहीन बाग। वे आएंगे और हमें इस बात पर उकसा देंगे कि CAA और NRC से हम सबका कोई भला नहीं होने वाला है। आखिर दंगों का सच भी तो कहीं इसी CAA,NRC और शाहीन बाग जैसे धरने की जिद्द पर आने से शुरु हुई थी। जब मुठ्ठी भर महिलाओं ने जाफऱाबाद मेट्रो स्टेशन के ठीक नीचे CAA खत्म करने की मांग तक धरना जारी रहने का ऐलान किया था।
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