Friday, Sep 29, 2023
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up assembly elections: this time many veteran muslim leaders are sitting at home

UP असेंबली इलेक्शनः इस बार घर बैठे हैं कई दिग्गज मुस्लिम नेता

  • Updated on 2/5/2022

नई दिल्ली/हर्ष कुमार सिंह। उत्तर प्रदेश का चुनाव इस बार एक बहुत बड़े बदलाव के लिए याद किया जाएगा। इस बार के चुनाव में प्रदेश की मुस्लिम लीडरशिप को बड़ा धक्का लगा है। हालांकि समाजवादी पार्टी व उसके साथी दल पूरी तरह मुस्लिम मतदाताओं पर निर्भर कर रहे हैं लेकिन फिर भी प्रदेश के कई दिग्गज मुस्लिम नेता इस चुनाव में घर बैठे हैं। उन्हें ना सपा ने टिकट दिया ना रालोद ने और ना ही मायावती के साथ बात बन सकी।

वेस्ट यूपी के इमरान मसूद व कादिर राणा से लेकर मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद तक, किसी को भी बड़े राजनीतिक दल ने घास नहीं डाली। मुस्लिम वोट बैंक पर पूरी तरह से आश्रित समाजवादी पार्टी ने भी कई प्रत्याशी इसलिए पीछे हटा लिए कि उनकी वजह से मतों का ध्रुवीकरण ना हो जाए। सबसे बड़ा उदाहरण है अमरोहा जिले की नौगांव सादात सीट से कमाल अख्तर जैसे दिग्गज नेता को कांठ (मुरादबाद) पर भेज दिया जाना।

नौगांव सादात से 2017 में चेतन चौहान जीते थे और उनके निधन के बाद उपचुनाव में उनकी पत्नी संगीता जीती थी लेकिन बीजेपी ने इस बार उनका टिकट काट दिया। इस सीट से सपा के टिकट पर कमाल अख्तर चुनाव लड़ा करते थे लेकिन रालोद व सपा गठबंधन को लगा कि यदि कमाल ही चुनाव लड़े तो शायद मुसलमानों के अलावा किसी का वोट ना मिले। इसलिए एक जाट प्रत्याशी समरपाल सिंह को यहां से लड़ा दिया गया। कमाल अख्तर वो शख्स हैं जो राजनीति में पदार्पण करते ही राज्यसभा के सांसद चुने गए थे और उस समय वे 30 साल के भी नहीं थे। अखिलेश की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। 

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहारनपुर से लेकर मुरादबाद तक मुस्लिम वोटर आधी से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं लेकिन फिर भी बहुत सी सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी को नहीं उतारा गया है। अगर कहीं उतारा भी गया है तो वहां विवाद हो गया है। मेरठ की सिवाल खास सीट पर सपा के नेता गुलाम मोहम्मद को रालोद के टिकट पर उतार दिया गया है। यहां जाट विरोध कर रहे हैं। गुलाम ने कभी 2014 के लोस चुनाव में बागपत से अजित सिंह को हरवाया था। इस बार जाट इस सीट पर अपना दावा मान रहे थे। 

दरअसल जयंत चौधरी व अखिलेश यादव ने यह तय किया है कि जिस सीट पर मुसलमान ज्यादा हैं केवल उसी सीट पर मुसलमान को टिकट दिया जाए। जैसे मुरादाबाद की ज्यादातर सीटों पर टिकट मुसलमानों को दिया गया है। अलबत्ता जिस सीट पर 50-60 हजार मुसलमान हैं वहां पर जाट, ठाकुर या गुर्जर आदि को टिकट दिया गया है। गठबंधन का मानना है कि बीजेपी की योगी सरकार को बाहर करने के लिए मुसलमान एकतरफा गठबंधन को वोट करने का मन बना चुके हैं। ऐसे में अगर मुसलमान को टिकट नहीं भी दिया जाए तो भी वे गठबंधन के समर्थन में ही वोटिंग करेंगे।

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सहारनपुर के चर्चित नेता इमरान मसूद ने इस बार चुनाव के समय कांग्रेस छोड़कर सपा में एंट्री कर ली लेकिन जयंत ने अखिलेश से कहकर उनका टिकट नहीं होने दिया। जयंत को मानना था कि इमरान की कट्टर छवि के कारण बाकी सीटों पर हिंदू वोटर बिदक जाएंगे और गठबंधन को वोट नहीं देंगे। अखिलेश ने इमरान को कह दिया कि उन्हें 2024 में लोकसभा का टिकट दे दिया जाएगा और इस बार आप केवल प्रचार करें। इस घटनाक्रम के बाद इमरान का एक वीडियो भी वायरल हुआ जिसमें वे कहते हुए नजर आ रहे हैं कि राजनीतिक दलों ने उन्हें कुत्ता बनाकर रख दिया है। 

इसके अलावा मुजफ्फरनगर की राणा फैमिली में से किसी को टिकट नहीं मिला। इस परिवार से एक सांसद (कादिर राणा) व दो विधायक (शाहनवाज व नूरसलीम) रह चुके हैं। मुजफ्फरनगर जिले के दिग्गज नेता अमीर आलम खां (कैराना के पूर्व सांसद) व उनके बेटे नवाजिश आलम (बुढ़ाना के पूर्व विधायक) भी इस बार रालोद से टिकट चाहते थे लेकिन बात नहीं बनी। आलम ने मुजफ्फरनगर दंगे के समय जाटों के खिलाफ आजम खां से कहकर मुकदमे लिखवाए थे और इसलिए जयंत ने बाप- बेटे को टिकट नहीं दिया। बीजेपी को मुजफ्फरनगर दंगे का हवाला देकर वोटों के ध्रुवीकरण का मौका मिल जाता जो वे नहीं चाहते थे।

मेरठ में शाहिद अखलाक व याकूब कुरैशी जैसे नाम भी टिकट नहीं पा सके। केवल शाहिद मंजूर किठौर से इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं क्योंकि उनका कोई विकल्प नहीं था। 2017 में बीजेपी ने किठौर सीट पहली बार जीत ली थी और इससे पहले शाहिद मंजूर इस पर लगातार जीतते रहे हैं। यही नहीं नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेता भी कहीं नहीं नजर आ रहे हैं। नसीमुद्दीन 2019 में मायावती को भला बुरा कहकर कांग्रेस में चले गए थे और बिजनौर से लोकसभा का चुनाव हार गए थे। वेस्ट यूपी में ले देकर आजम खां व उनके बेटे अब्दुल्ला आजम ही ऐसे मुस्लिम लीडर हैं जो मैदान में हैं।

वैसे तो दर्जनों मुस्लिम प्रत्याशी सपा व बसपा ने मैदान में उतारे हैं लेकिन ये सभी नए नाम हैं। इनके प्रति कोई अवधारणा नहीं है। ना ही किसी की कट्टरवादी टाइप की छवि है। बसपा ने तो पहले ही मुख्तार अंसारी जैसे बाहुबली को टिकट देने से इंकार कर दिया था। जेल में बंद अतीक अहमद की पत्नी भी प्रयागराज से ओवैसी की पार्टी से चुनाव लड़ रही हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि यह पहला चुनाव है जिसमें बीजेपी के सत्ता में वापसी के डर से ज्यादातर दल ध्रुवीकरण से बचना चाहते हैं और कट्टर छवि वाले मुस्लिम नेताओं को टिकट नहीं दिए जा रहे हैं।

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