नई दिल्ली/शेषमणि शुक्ल। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों के जो नतीजे आए हैं, इससे भी अगर सबक नहीं लिया तो कांग्रेस का कोई कुछ भी नहीं कर सकता। ये नतीजे कांग्रेस के नेतृत्व, कांग्रेस के नेताओं, कांग्रेस के संगठन, कांग्रेस की चुनावी रणनीति, चुनावी प्रबंधन सभी पर समग्रता से विमर्श और मंथन की जरूरत बता रहे हैं। खास कर पंजाब, गोवा और उत्तराखंड के परिणाम कांग्रेस के लिए मीमांसा और मंथन का विषय है।
यूपी की सियासत को 3 दशक तक प्रभावित करने के बाद हाशिये पर पहुंची मायावती की BSP तीस साल से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर कांग्रेस का इस चुनाव में अब तक का सबसे कमजोर प्रदर्शन सामने आया है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 के चुनाव में कांग्रेस ने 39 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल कर 269 सीटें जीती थी। नारायण दत्त तिवारी इसके अंतिम मुख्यमंत्री थे। तब से अब तक पार्टी का जनाधार गिरता जा रहा है। 1989 में यह मत प्रतिशत गिर कर 28 और 1991 में 18 पहुंच गया। इसके बाद प्रदेश कांग्रेस दृश्य से बाहर होती चली गई। 2017 में दहाई से नीचे जा गिरी और इस बार पांच सीट का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। जो जीते, वे अपने दम पर जीते। पार्टी की भूमिका उनकी जीत में लगभग शून्य है। गांधी परिवार अपने गढ़ अमेठी और रायबरेली को भी नहीं बचा सका। पिछले चुनाव में रायबरेली की दो सीटें कांग्रेस जीती भी थी, जो अब भाजपा के पास जा चुकी है।
Uttarakhand में एक ही दल को लगातार दोबारा सत्ता न मिलने का मिथक टूटा सवाल यही है कि ऐसा क्यों? जबकि पार्टी प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी की मेहनत पर कोई सवाल नहीं उठाया सकता। प्रियंका ने बीते छह महीने में उत्तर प्रदेश में 167 रैली, जनसभाएं, नुक्कड़ सभाओं के साथ 42 से ज्यादा रोड शो, घर-घर जनसंपर्क और 350 विधानसभाओं में वर्चुअल संवाद कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और सपा प्रमुख अखिलेश यादव को भी पीछे छोड़ दिया था। प्रियंका ने आधी आबादी को ध्यान में रखते हुए 40 फीसद सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारा और ‘लडक़ी हू, लड़ सकती हूं’ जैसा स्लोगन दिया जो इतना चल पड़ा कि विरोधी दलों को भी महिलाओं को लेकर कई घोषणाएं करनी पड़ी। इसमें भी कोई दो राय नहीं, एक तरफ भाजपा और सपा जाति, धर्म, संप्रदाय की सियासत पर जोर दिए पड़ीं थीं तो प्रियंका इस सारी जड़ताओं को तोड़ कर विकास, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर लोगों से वोट देने की अपील करती दिखीं। लेकिन यूपी की जनता न तो महिला सशक्तिकरण की प्रियंका की अपील को सुना और न ही लडक़ी हूं, लड़ सकती हूं स्लोगन से प्रभावित हुआ।
उत्तर प्रदेश में बंपर जीत से BJP गदगद, कहा- ‘नया इतिहास’ रचा जा रहा है पंजाब में कांग्रेस पांच साल से सत्ता में थी और इस बार अकाली-भाजपा के अलगाव एवं किसान आंदोलन के प्रभाव के चलते दोबारा सत्ता में आती दिख रही थी। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस के हाथ से सत्ता खिसक गई और आम आदमी पार्टी अचानक से लैंड स्लाइड विक्टरी ले गई? जबकि कांग्रेस ने पंजाब में कैप्टन अमरिंदर को हटा कर दलित समुदाय से आने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर एक बड़ा प्रयोग किया था और देश के दलितों को एक संदेश देने का काम किया था। मगर, यह प्रयोग भी नहीं चला। चन्नी खुद अपनी दोनों सीटों पर चुनाव हार गए। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू अपना चुनाव हार गए। कई कांग्रेसी मंत्री चुनाव हार गए। प्रचंड बहुमत से खिसकर कांग्रेस 20 सीट से भी नीचे जा गिरी।
UP Election Result 2022: रुझानों में भाजपा 267 और सपा 125 सीटों पर आगे उत्तराखंड का नतीजा सबसे उलटफेर वाला था। बीते 20 साल में यहां की जनता ने किसी भी दल को लगातार दूसरी बार सत्ता नहीं दी थी। इस बार भाजपा लगातार दूसरी बार सत्ता में पहुंच गई है, वह भी पूर्ण बहुमत के साथ। जबकि तीन बार मुख्यमंत्री बदलने, पांच साल की सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और राज्य के मैदानी इलाकों में किसान आंदोलन के प्रभाव को देखते हुए इस बार भी परंपरा बरकरार रहने की उम्मीद थी और कांग्रेस की सरकार बनने का दावा किया जा रहा था। मगर, कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसल गई। यहां तक कि पार्टी के मुख्यमंत्री का चेहरा बनने का दावा करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अपना चुनाव हार गए। ऐसा क्यों?
अनिर्णय की शिकार कांग्रेस ऐसा इसलिए कि कांग्रेस लंबे समय से अनिर्णय की स्थिति का शिकार है। निर्णय समय पर नहीं होते और होते हैं तो इतना विलंब हो चुका होता है कि फिर संभालना मुश्किल हो जाता है। उत्तर प्रदेश को ही लें, बीते 30 साल में कांग्रेस अपनी सियासी जमीन खोती गई, पार्टी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। 2022 में जब प्रियंका गांधी ने प्रभारी बनने के साथ इसका एहसास किया तो उनके सामने मृतप्राय संगठन को सक्रिय करने की चुनौती थी। छह महीने उन्हें लग गए संगठन को सक्रिय करने में। इसी लडख़ड़ाते संगठन पर प्रियंका ने अपने प्रयोगो का बोझ डाल दिया, जिसके लिए राज्य का जनता भी पूरी तरह तैयार नहीं थी। 40 फीसद महिलाओं को सियासी तौर पर सशक्त करने का प्रियंका का प्रयोग न संगठन लोगों को समझा पाया और न ही लोगों के ही गले उतरा। ऐसे चेहरों को टिकट दिए गए, जिन्हें शायद ब्लाक स्तर पर भी कोई नहीं जानता था। नई लीडरशिप तैयार करने में पार्टी के पुराने नेताओं की अनदेखी भी कांग्रेस को भारी पड़ी। जिनके पास चुनाव लडऩे-लड़ाने का अनुभव था, उपेक्षा का शिकार होने से घर बैठ गए। पार्टी का अध्यक्ष बनाए गए अजय कुमार लल्लू भी संगठन को प्रभावी नेतृत्व देने में असफल रहे।
ऐन चुनाव के वक्त बदलाव पड़ा भारी
पंजाब में भी अनिर्णय ने ही कांग्रेस का बंटाधार किया। मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके मंत्री रहे नवजोत सिंह सिद्धू की आपसी टकराहट कई महीनों से चली आ रही थी, लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव से कुछ महीने पहले कैप्टन को हटाने का फैसला लिया। कैप्टन अमरिंदर जिस तरह से हटाए गए, उससे बेहतर भी तरीका अपनाया जा सकता था। इसके बाद अध्यक्ष बने सिद्धू मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देखने लगे, तो शीर्ष नेतृत्व ने चन्नी पर दांव खेल दिया। यह भी फैसला लेने में भी शीर्ष नेतृत्व ने परिपक्वता नहीं दिखाई। इसके चलते ऐन चुनाव में सिद्धू ने हाथ ठीले कर दिए। आती हुई सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल गई।
एक-दूसरे को काटने में हुई हार
उत्तराखंड में भी कांग्रेस नेताओं की आपसी कलह ही इस हार का कारण बनी। जिस वक्त चुनाव प्रचार को धार देने की जरूरत थी, पार्टी के वरिष्ठ नेता हरीश रावत खुद को मुख्यमंत्री चेहरा बनाने की चाहत में बागी तेवर दिखाते दिखे। शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री चेहरा देने का निर्णय न लिया और न ही साफ किया कि आगे कौन होगा। इस अनिर्णय की स्थिति में नेताओं ने एक-दूसरे को काटने और हराने की रणनीति पर ज्यादा ध्यान दिया, बजाए पार्टी की जीत के लिए काम करने में।
आपस की गुटबाजी ले डूबी गोवा
गोवा में भी कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई के चलते कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ कर चले गए। इसका नुकसान पार्टी को हुआ। गुटबाजी कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या है। समय रहते पार्टी इस पर न अंकुश लगा पा रही है और न ही नियंत्रित कर पा रही है। इसी का परिणाम है कि कई बड़े चेहरे एक के बाद एक कर कांग्रेस छोड़ गए। चाहे हेमंत बिस्वा सरमा हो या ज्योतिरादित्य सिंधिया रहे हों। जितिन प्रसाद रहे हों या फिर आरपीएन सिंह। ये सभी कभी कांग्रेस नेतृत्व के दाएं-बाएं माने जाते रहे। गुटबाजी और गैर प्रभाव वाले नेताओं को अहम पदों पर तरजीह मिलने से पार्टी के तमाम नेता नाराज हैं, जिन्हें कथित जी-23 कहा जाता है। इसमें गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, भूपेंद्र हुड्डा जैसे नाम हैं।
समग्रता से मंथन की जरूरत कांग्रेस के पास अभी भी वक्त है। इसी साल हिमाचल प्रदेश, गुजरात में विधानसभा चुनाव है। जहां भाजपा सत्ता में है। अगले साल राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव है। इसमें से दो में कांग्रेस की सत्ता है। इसके बाद 2024 में लोकसभा चुनाव है। इन पांच राज्यों की हार से कांग्रेस ने सबक लेकर संगठन, चुनाव प्रबंधन, रणनीति और अपने फैसलों पर समग्रता से विचार मंथन नहीं किया और उसमें सुधार नहीं किया तो फिर कांग्रेस का कोई कुछ नहीं कर सकता। यह मान लेना कि जनता एक दिन खुद भाजपा को सत्ता से बाहर कर देगी, महज दिवा स्वप्न है। कांग्रेस को पहले खुद के प्रति जनता का भरोसा जीतना होगा।
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