नई दिल्ली/शेषमणि शुक्ल। विधानसभा चुनाव की तिथियां घोषित होने के साथ ही पूरे देश की नजर उत्तर प्रदेश के चुनाव पर आ टिकी है। राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) पहला चुनाव बगैर चौधरी अजीत सिंह के लडऩे जा रहा है। कोरोना महामारी की चपेट में आए चौधरी अजीत सिंह का पिछले साल देहांत हो गया था। अब पार्टी की कमान उनके पुत्र जयंत चौधरी के कंधों पर है। ऐसे में रालोद और जयंत दोनों के लिए यह चुनाव अग्निपरीक्षा है। इसके नतीजे जयंत की नेतृत्व क्षमता, संगठन क्षमता, रणनीति प्रबंधन और जनता की नब्ज पकडऩे की क्षमता साबित करेंगे। नतीजे यह भी बताएंगे कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की विरासत को जयंत किस तरह से संभालने वाले हैं।
विधान सभा चुनाव : अब ब्राह्मण समाज ने भरी हुंकार, राजनीतिक दलों को दिखाए तेवर जयंत के लिए यह पहला चुनाव है, जो अपने पिता के साए से अलग लडऩे जा रहे हैं और न केवल लडऩे जा रहे हैं, बल्कि खुद अपनी पार्टी और प्रत्याशियों को लड़ाने जा रहे हैं। संगठन को एकजुट रखने, सबको साथ लेकर चलने और चुनावी रणनीति बनाने का सारा फैसला उनका खुद का होगा। चुनाव प्रबंधन, प्रत्याशी चयन और प्रचार प्रबंधन संबंधी उनके फैसले ही चुनाव के नतीजे तय करेंगे। इसी से यह भी साफ हो जाएगा कि वे कितने अच्छे रणनीतिकार हैं। जयंत की शुरुआत तो अच्छी दिख रही है। गन्ना बेल्ट पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान जिस वक्त केंद्र के तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के गाजीपुर सीमा को घेरे बैठे थे, जयंत ने उसी दौरान किसान महापंचायतों का आयोजन किया और उनकी समस्याओं को लेकर सूबे और केंद्र की सरकार के खिलाफ आक्रामक तेवर दिखाए। इन्हीं महापंचायतों के जरिए जयंत ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भ्रमण किया। उनकी महापंचायतों में भीड़ भी खूब जुटी, लेकिन उस भीड़ का प्यार उन्हें कितना मिला, यह चुनाव के नतीजे बताएंगे। जयंत के कंधों पर अब अपने पिता चौधरी अजीत सिंह की चौधराहट के साथ-साथ रालोद की कमान और अपने दादा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की सियासी विरासत का दायित्व है। चौधरी चरण सिंह की छवि किसान नेता की थी, जिसमें सभी वर्ग और जाति-बिरादरी थे, लेकिन चौधरी अजीत सिंह का दायरा घट कर जाट-मुस्लिम समीकरण तक ही सीमित रह गया था। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद तो जाटों में भी उनके प्रति नाराजगी दिखी और मुस्लिम भी खिसक कर दूसरे दलों की ओर चले गए। इसी का परिणाम रहा कि 2014 में वे शून्य पर पहुंच गए।
शून्य से ऊपर उठने की है चुनौती रालोद का एक बेहतर इतिहास रहा है। रालोद की स्थापना 1996 में चौधरी अजीत सिंह ने की थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट बहुल इलाका इस पार्टी का प्रभाव क्षेत्र है। 1996 में चौधरी अजीत ने उत्तर प्रदेश की 38 विधानसभा सीटों पर रालोद प्रत्याशी उतारा, इसमें से 8 सीटें जीते। इसके बाद 1998 का लोकसभा चुनाव आया तो रालोद ने आठ प्रत्याशी उतारा, जीता एक भी नहीं। लेकिन 1999 के लोकसभा चुनाव में रालोद सात सीटों पर चुनाव लड़ा और दो जीतने में सफलता मिली। 2002 के यूपी चुनाव में रालोद ने फिर 38 विधानसभा सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारा और इस बार उसकी सीटें बढ़ कर 14 पहुंच गईं। फिर 2004 का लोकसभा चुनाव चौधरी अजीत सिंह ने सपा के साथ गठबंधन करके लड़ा। रालोद ने 10 सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारा और तीन जीत लिया। मगर, यह गठबंधन 2007 के विधानसभा चुनाव में नहीं बन सका और रालोद ने चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व में सूबे की 254 सीटों पर उम्मीदवार उतारा। जीत का आंकड़ा पहले से कम होकर 10 रह गया। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजीत ने भाजपा के साथ गठबंधन कर सात सीटों पर चुनाव लड़ा और पांच पर जीत हासिल की। लेकिन 2012 आते-आते रालोद की पकड़ ढीली पडऩी शुरू हो गई। 2012 के विधानसभा चुनाव में 46 सीटों पर चुनाव लड़ कर पार्टी को नौ सीटों पर और 2017 में 171 सीटों पर उम्मीदवार उतार कर केवल एक सीट पर जीत मिली। जीता हुआ विधायक बाद में भाजपा में चला गया, जिससे पार्टी शून्य पर चली गई। वहीं, 2014 का लोकसभा चुनाव यूपीए के साथ मिल कर आठ सीटों पर लड़ा और 2019 में सपा-बसपा गठबंधन के साथ मिल कर तीन सीटों पर लड़ा, मगर एक भी सीट नहीं मिली। नतीजों का यह ट्रेंड दिखाता है कि रालोद चौधरी अजीत सिंह के जीवित रहते ही कमजोर होने लगा था। छह बार सांसद रहने के बाद चौधरी अजीत सिंह खुद अपना दो चुनाव हार गए। उनके बेटे जयंत चौधरी जो अब रालोद अध्यक्ष हैं भी लगातार दो चुनाव हार चुके हैं। ऐसे में उनके ऊपर रालोद को दोबारा से मजबूत करने और लोगों का भरोसा जीतने की बड़ी जिम्मेदारी है।
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