नई दिल्ली/ टीम डिजिटल। एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ने उच्चतम न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार की उस याचिका पर जारी आदेश को लेकर सोमवार को चिंता व्यक्त की जिसमें केंद्र ने न्यायालय के आदेश को वापस लेने का अनुरोध किया था। शीर्ष अदालत ने व्यवस्था दी थी कि कोई जांच एजेंसी किसी अभियुक्त को ‘डिफाल्ट' जमानत से वंचित करने के प्रयास के तहत जांच पूरी किये बिना अदालत में आरोपपत्र दाखिल नहीं कर सकती।
एनजीओ ‘कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स' (सीजेएआर) ने एक बयान में रितु छाबड़िया बनाम भारत संघ के मामले में 26 अप्रैल के फैसले का हवाला दिया और कहा कि फैसले के जरिये कानून के इस बिंदु को दोहराया गया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167 के तहत ‘डिफॉल्ट' जमानत एक मौलिक अधिकार है।
सीआरपीसी की धारा 167 के अनुसार, अगर जांच एजेंसी रिमांड की तारीख से 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रहती है तो एक आरोपी ‘डिफॉल्ट' जमानत का हकदार होगा। कुछ श्रेणी के अपराधों के लिए, निर्धारित अवधि को 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है।
प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने एक मई को दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था, ‘‘इस बीच संबंधित फैसले के आधार पर किसी अन्य अदालत के समक्ष दायर अन्य अर्जियों को चार मई, 2023 के बाद के लिए स्थगित कर दिया जायेगा।'' इसने मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष चार मई को सूचीबद्ध करने का आदेश दिया था।
बाद में यह मामला चार मई को प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए आया जिसने अपने आदेश में कहा, ‘‘याचिका में संशोधन की अनुमति दी गई है। विशेष अनुमति याचिकाओं को 12 मई, 2023 को अपराह्न दो बजे के लिए सूचीबद्ध किया जाये। इस अदालत द्वारा एक मई, 2023 को पारित अंतरिम आदेश सुनवाई की अगली तारीख तक जारी रहेगा।''
एनजीओ ने अपने बयान में कहा कि रितु छाबड़िया मामले में 26 अप्रैल का फैसला ‘‘निर्विवाद रूप से स्वागत योग्य'' है और यदि इसे पलटा जाता है तो यह हास्यास्पद होगा। इसने कहा कि शीर्ष अदालत के अंतिम फैसले के खिलाफ यह अर्जी स्पष्ट रूप से विचार करने योग्य नहीं है और यहां तक कि इसे अदालत की रजिस्ट्री द्वारा पंजीकृत नहीं किया जाना चाहिए था।
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