नई दिल्ली। अनामिका सिंह। बोल बम का नारा, देंगे बाबा सहारा/ सारे गांव से दूध मंगाकर शिवजी को नहला दूं/ शिव कैलाश के वासी, धौली धारों के राजा/चल रे कावंडिया शिव के धाम जैसे गीतों से गुंजायमान होते कांवड शिविरों में हर ओर शिवभक्त की बड़ी संख्या देखने को मिल रही है। उनकी भक्ति की शक्ति ही है कि कंधे पर कांवड टांगे कई मीलों लंबा सफर तय कर वो भगवान शिवजी को प्रसन्न करने के लिए गंगाजल भरकर लाते हैं और उनका जलाभिषेक करते हैं। आधुनिक जमाने में मशीनीकरण के चलते अब कांवड लाने का तरीका भी काफी बदल गया है। बड़ी-बड़ी कांवड बकायदा डीजे के साथ अत्याधुनिक तरीकों सुसज्जित स्टेज के साथ कांवड सेवा दल द्वारा कावंड लाने का फैशन सा चल निकला है। तो आइए जानते है क्या है कांवड लाने का इतिहास और किस तरह से सजाया जाता है शिविर और क्या-क्या रहती है व्यवस्थाएं, जिससे पूरी दिल्ली श्रावण मास में शिवमय हो जाती है। हर घर तिरंगा अभियान के चलते तिरंगे की मांग बढ़ी, सदर बाजार में लौटी रौनक
कांवड लाने का पौराणिक महत्व यदि कांवड लाने के पौराणिक महत्व की बात करें तो सही मायने में यह प्रकृति पूजा का एक बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें जीवनदायिनी नदी गंगा के जल से भगवान शिव जिन्हें सृष्टि का दूसरा रूप कहा जाता है उन्हें प्रसन्न किया जाता है। ये जल संचय की महत्ता को भी बताती है। हिंदू पौराणिक इतिहास के अनुसार भगवान शिव के परम भक्त परशुराम ने पहली बार इस कांवड यात्रा को श्रावण महीने में किया था। जबकि कई कथाओं के अनुसार शिवभक्त रावण ने पहली कांवड यात्रा की थी। तभी से यह कांवड यात्रा की परंपरा प्रारंभ हुई। इसके अलावा कहा जाता है कि त्रेता युग में श्रवण कुमार द्वारा अपने माता-पिता की इच्छापूर्ति के लिए कांवड़ में बैठाकर उत्तराखंड के हरिद्वार में गंगा स्नान करवाया था। लौटते वक्त वो अपने साथ जो गंगाजल लाए थे उससे उन्होंने भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था। खासकर श्रावण की चतुर्दशी के दौरान जलाभिषेक का विशेष महत्व माना गया है। इसका सामाजिक महत्व भी है जो जल संचय की सीख देता है। केवट के किरदार का मंचन करेंगे मनोज तिवारी : अर्जुन कुमार
कई प्रकार की होती है कांवड यात्राएं बता दें कि कांवड यात्रा कई प्रकार की होती हैं और उनके नियम भी अलग-अलग होते हैं। इनमें पहली सामान्य कांवड़ यात्रा होती है, जिसमें कांवडिय़ा शिविरों में आराम करते हुए घर के नजदीक किसी मंदिर में जलाभिषेक करते हैं। वहीं डाक कांवड यात्रा में शिव भक्त लगातार कांवड़ लेकर चलते रहते हैं, इनके लिए मंदिरों में अलग तरह से इंतजाम किए जाते हैं। जब ये कांवड़ यात्री निकलते हैं तेो हर कोई उनका रास्त्ज्ञा छोड़ देता है ताकि बिना रूके शिवलिंग तक जल पहुंच सके। खड़ी कांवड़ यात्रा में काफी कठिन होती है, इसमें कांवडिय़ां लगातार कंधों पर कांवड़ को रखे रहते हैं। इसे कई लोग मिलकर करते हैं जब एक थक जाता है तो दूसरा कांवड़ को अपने कंधों पर रख लेता है। जबकि दांडी कांवड़ यात्रा सबसे कठिनतम मानी जाती है। इसमें शिवभक्त गंगाजल भरने के बाद शिवमंदिर तक दंड करते हुए यात्रा पूरी करता है। जल्द आईपीयू में तीन नए स्कूल खुलेंगे
कांवड का स्वागत पारंपरिक अंदाज में करती हैं संस्थाएं बात यदि राजधानी दिल्ली की करें तो यहां श्रावण मास में कांवड लाने वालों का स्वागत कई संस्थाओं द्वारा पारंपरिक अंदाज में किया जाता है। जहां कांवडिय़ां दिल्ली में प्रवेश करते हैं तो उन पुष्प वर्षा व माला पहनाकर स्वागत किए जाने की प्रथा है। वहीं कावंडियों के कांवड की शुद्धता का संस्थाएं पूरी तरह से ध्यान रखती हैं और उन्हें टांगने से लेकर सुरक्षा करने का पूरा जिम्मा भी लेती हैं। इसके अलावा कावंडिय़ों के खाने-पीने से लेकर उनके आराम, डॉक्टरी जांच व आपातकालीन परिस्थितियों में मेडिकल ट्रीटमेंट की व्यवस्था भी संस्थाओं द्वारा की जाती है। आईपीयू ने घोषित कि सभी 31 प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम
भव्य कांवड़ शिविरों का पुराना है इतिहास राजधानी में भव्य शिविर बनाने का शुरू से ही एक फैशन सा रहा है। खासकर लक्ष्मी नगर, सीलमपुर, धौली प्याऊं, झंडेवालान, कीर्तिनगर, रमेश नगर, उत्तम नगर, नजफगढ़, द्वारका, धौलाकुआं, द्वारका-गुरूग्राम मार्ग, आजादपुर, प्रीतमपुरा, पश्चिम विहार सहित कई इलाकों में भव्य शिविरों को लगाया जाता है। इतिहासकार बताते हैं कि मुख्यत: बाबा धाम से कांवड यात्रा प्रारंभ की गई थी और पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में इसका काफी महत्व था लेकिन 1960 के बाद दिल्ली में भी हरिद्वार से जल भरकर लाने की शुरूआत हुई और धीरे-धीरे शिवभक्तों की संख्या में बढऩे लगी। अब हाल यह है कि लाखों की संख्या में दिल्ली से ही कावंडिय़ां गंगाजल हर साल लेने जाते हैं। वहीं उनके लौटने पर शिविर तैयार करने वाले भी बीते 6 दशकों से सेवा में लगे हुए हैं। इस साल दिल्ली सरकार की ओर से 175 कांवड शिविर दिल्ली के विभिन्न इलाकों में लगाए गए हैं। शिवभक्त कावंडियों के लिए सजे पंडाल
कहां से आते हैं कांवडिय़ा और कहां जाते हैं बैजनाथ धाम की दूरी अधिक होने की वजह से अधिकतर शिवभक्त हरिद्वार व ऋषिकेश से कांवड में गंगाजल भरकर लाते हैंं। अधिकतर कावंडियां दिल्ली, राजस्थान व हरियाणा के होते हैं जो दिल्ली के शिविरों में रूकते हैं। कावंड यात्रा विशेषकर उत्तर-पूर्वी जिले से होकर गुजरती है यही वजह है कि जीटी रोड़ यानि केशव चौक से यमुना ब्रिज तक, आईएसबीटी, वजीराबाद रोड़ (भोपुरा बॉर्डर से सिग्नेचर ब्रिज), रोड़ नंबर 66 (गोकुलपुरी से सीलमपुर), पुस्ता रोड से होते हुए द्वारका-गुरूग्राम हाईवे होते हुए हरियाणा व राजस्थान सहित एनसीआर के कई इलाकों में प्रवेश करते हैं। जहां बीच-बीच में उनके खाने-पीने व ठहरने का इंतजाम किया जाता है। पैदावार कम होने से खुदरा में 80 रुपए दर्जन पहुंचे केले के दाम
शिविरों में मनोरंजन का भी भरपूर इंतजाम समय के साथ परंपराएं व मान्यताएं काफी बदलती जा रही हैं, उसी प्रकार भक्ति भाव में भी परिवर्तन स्वाभाविक है। लेकिन नहीं बदला तो कांवडिय़ों द्वारा एक-दूसरे को भोला कहने का भाव। शिविरों में काफी परिवर्तन आया है पहले जहां शिव चालीसा, शिवतांडवस्त्रोत व पंचाक्षरी मंत्रों द्वारा शिविर में कांवडिय़ां वक्त बीताते थे, वहीं अब थीम पर बने बड़े-बड़े पांडालों में म्यूजिक की विशेष व्यवस्था रहती है ताकि कांवडिय़ों का मनोरंजन किया जा सके। आयोजकों द्वारा बड़ी एलईडी स्क्रीन पर भोलेनाथ के भजन, कथा व कांवड़ पर प्रचलित गीत चलाए जाते हैं तो शिव बारात, भूत-प्रेतों द्वारा शिव आराधना, नंदी पर शिव भगवान का प्रवेश जैसी झांकियां भी निकाली जाती है। कांवड़ शिविरों में खासकर कैलाश खेर व हंसराज रघुवंशी, लखवीर सिंह लक्खा सहित भोजपुरी, हरियाणवी व राजस्थानी भाषा के गायकों के गीत चलाए जाते हैं।
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